निशा चतुर्वेदी
रोज सवेरे वह लड़की
मैले-कुचैले कपड़े पहने
कागज, पन्नियाँ बीनने आती
हर रद्दी कागज, पन्नियों में
वह कुछ ना कुछ तो पाती
फिर उठा उसे थैले में डालकर
यूँ आगे निकल है जाती
रोज सवेरे होते ही वह
यही क्रम है दोहराती
कागज, पन्नियों में जो भी मिलता
उसे देख खुश हो जाती
आज की रोटी मिल जायेगी
यही सोचकर इतराती
जिस दिन ज्यादा कागज, पन्नियाँ बीनती
चैन की नींद है सोती
उसके सपने भी हैं ऊँचे
मगर गरीबी है उसकी मजबूरी
जिसके द्वार खड़ी होती वह
दुत्कारी जाती, भगाई जाती
मगर किसी के द्वार पर
बासी रोटी, पानी मिलने पर ही
यही ढेरों दुआएँ दे जाती
यही ढेरों दुआएँ दे जाती....।