: डॉ. माया दुबे
चलते-चलते जब पाँव जबाव देने लगे, तब भोलू पेड़ के नीचे बैठ जाता है, अपने झोले को टटोलता है, कुछ पाव के टुकड़े पड़े हैं, उन्हें झाड़कर मुँह में डालता है, तथा बचा हुआ बोतल का पानी पीकर वहीं लेट जाता है। दिमाग सुन्न में घूम रहा है, कुछ नहीं सूझता कहाँ जायें, क्या करें, उसका एक निर्णय उसे मरणासन्न स्थिति में ले जाकर खड़ा कर दिया। शरीर से हट्टा-कट्टा कोई भी काम कर सकता है, लेकिन सच ही कहा गया है, दुर्दिन में मुँह में जाता हुआ कौर भी गिर जाता है, बनता हुआ हर काम बिगड़ जाता है। उसे रह-रहकर संस्कृत की कक्षा में पढ़ी हुई पंक्तियाँ याद आ रही हैं- "चरैवेति-चरैवेति" चलते रहो, चलते रहो, चलने वाला ही तो जीतता है, रूक जाना ही तो मृत्यु है, जीवन तो चलायमान है। मैं अगर हार मानकर रूक जाता हूँ तो शायद उठ नहीं पाउंगा, चलना तो दूर, बैठ भी नहीं पाउंगा। मन में छोटा सा आशा का जुगनू चमकता है, वह पुनः उत्साह से खड़ा होने का प्रयास करता है। अपनी जेब टटोलता है, कुल तेरह रुपये, बहुत संभालकर रखता है, यही आस है, आगे का सहारा है, कुछ दिन तो जीवन रक्षण कर सकता है। बड़े जतन से उसे संभालता है। फिर वही प्रश्न कहाँ जाएँ, कैसे जायें, क्या करें? दूर-दूर तक जंगल ही जंगल दिखता है, रोंगटे खड़े हो जाते हैं, जल्दी से जल्दी रात होने से पहले यहाँ से निकल जाएँ, अथवा कुछ भी हो सकता है। वह पुनः चलने लगता है, बिना कहीं देखे, चलता जाता है जिधर मार्ग दिखता है। वहीं मुड़ जाता है। आज उसे भाग्य पर भरोसा हो जाता है, जब वह बहुत छोटा था, तब अपनी माँ से अक्सर पूंछता था, माँ हम लोगों के पास बड़ा अच्छा सामान क्यों नहीं हैं, माँ यही कहकर चुप हो जाती बेटा सब भाग्य का खेल है, भोलू सुनकर कुछ समझता, कुछ नहीं चुप हो जाता, कभी माँ से पुनः सवाल करता यह भाग्य क्या होता है, क्या यह सबको बड़ा घर, अच्छे कपड़े देता है, राजू, पिंकू सबके पास तो है, यह भाग्य कहाँ मिलेगा, मैं भी लूँगा। माँ भोलू के भोलेपन पर चुप हो जाती है, क्या जबाव देती, किसी को पता नहीं भाग्य कैसे बनता है। उसे आज सभी बातें याद आ रही हैं, सच भी है, जब व्यक्ति के पास सब कुछ होता है, तब वह उसका महत्व नहीं समझता, जब कुछ नहीं होता तब प्रत्येक चीज का महत्व है। सिर पर छाया न हो, पाँव के नीचे जमीन न हो, भोजन का ठिकाना न हो, तो सारी दिमागी उर्जा उसे जुटाने में ही लग जाती है। आज भोलू की भी हालत वैसी हो रही है, तभी कहीं सरसराहट होती है, कान सतर्क हो जाते हैं, मन में हजार तरह की शंकाएँ जन्म लेने लगती हैं, पता नहीं क्या है, कहीं शेर न हो, कहीं कोई भूत न हो, बचपन में सुनी हुई कई कथाएँ याद आने लगी, ऐसे में लगता शायद कोई परी आ जाय और मुझे अपनी जादू की छड़ी से तुरंत घर पहुँचा दे। "घर" यह शब्द जेहन में आते ही माँ की नम आँखें, कातर और विवश चेहरा उभर आता है। जो भरे पूरे परिवार में सबकी जी हजूरी करके अपना जीवन बसर कर रही थी, एक उम्मीद का जुगनू कहीं टिका था तो वह भोलू था, जो पढ़- लिखकर कुछ बन जायेगा तो उस दुखियारी माँ के सभी दुर्दिन कट जायेंगे। भोलू ही उसकी उम्मीदों का सितारा था, कितने मन से उसका नामकरण भोलानाथ किया गया था:
लेकिन तीन महीने का होते-होते पिता के सुख से वंचित हो गया, खैर उसके लिए तो माँ ही सब कुछ थी, जबसे आँख खोला था माँ की साड़ी पकड़कर पीछे-पीछे ही चल रहा था, परिवार की औरतें माँ को ताने देती क्या पिछलग्गू लड़के को बनाई हो, न खेलता है, न पढ़ता है, दिन भर साथ-साथ लगा रहता है, शायद बचपन से ही उसके मन में भय बैठ गया था कहीं माँ उसे दूर न कर दे। सभी बच्चों के साथ वह भी स्कूल जाने लगा, तीक्ष्ण बुद्धि होते हुए भी उससे दिन भर कुछ न कुछ काम कराया जाता था, चारा, भूसा से लेकर कुएँ से पानी खींचना जो भी उसे खाली देखता एक काम बता देता, माँ मन मसोस कर रह जाती, विधवा का बेटा, वैसे ही अभागिन थी, किसी तरह शरण मिला था, मायके में भी कोई नहीं था, आखिर मन मसोस कर रह जाती। धीरे-धीरे भोलू ने आठवीं पास कर लिया, इसी दौरान एक दूर के रिश्तेदार मुम्बई से आए, उन्होंने पूछा मेरे यहाँ चलेगा, थोड़ा बहुत काम करना, बाकी समय पढ़ाई, कोई अच्छी नौकरी लगवा दूँगा। भोलू तैयार नहीं हुआ, माँ ने विवशता में हाँ कर दी, शायद उसकी जिंदगी बन जाये, यहीं से उसके दिन बदल गए. भोलू बहुत रोया, माँ से गिड़गिड़ाया मुझे कहीं मत ढांढस बंधाया. बेटा जाओ, मन लगाकर काम करना, खूब पढ़ाई करना, जब नौकरी लग जायेगी तो मैं आ जाऊँगी, मेरे पास और कौन है, तुम्हीं तो मेरे सब कुछ हो, भोलू बेमन से मुम्बई आ गया। धीरे-धीरे उसे बात समझ में आने लगी, नौकर की जरूरत थी, सो वे लोग उसे असहाय एवं गाँव का सीधा लड़का समझकर धोखे से ले आए। पढ़ाई-लिखाई तो दूर, उसे भरपेट खाना भी नहीं देते थे।
पैसा, कहते थे तुम्हारी माँ के पास
भेज देते हैं। दिन भर झाडू-पोंछा चौका- बर्तन से लेकर सभी काम वह करता था, रात को उसे सीढ़ी के उपर की जगह में सोने को कह दिया जाता। धीरे-धीरे छः महीने बीते साल बीता, जब वह घर जाने की बात करता, तब वे लोग टाल देते, उनके उदंड बच्चे कभी-कभी पीट भी देते। एक दिन तो हद ही हो गई घर से कुछ पैसे गायब हो गए। उस पर शक किया गया, वह घिघियाता रहा मैं कहाँ रखूँगा, मैंने तो बाहर शहर ही नहीं देखा है, मेरी गृहस्थी में बस वही झोला जो घर से लाया था तथा दो कपड़े और एक चटाई है। लेकिन मालिक ने लात- घूंसों से पिटाई कर दी। वह लाचार, बेसहारा सा रोता रहा। तभी मन में एक निर्णय लिया किसी तरह से यहाँ से छुटकारा मिले। उसे माँ का वह उम्मीद भरा चेहरा याद आता, वह रोज देवी- देवता मनाती होगी, उसकी सलामती की दुआ करती होगी। उसे क्या पता उसने किस कसाई के हाथ में बच्चे को दिया है।
इतने में एक दिन एक घटना और घटती है, उसे प्रेस के लिए कपड़ों का ढेर दे दिया जाता वह प्रेस करते करते थक जाता है, प्रेस शर्ट पर रखी रह जाती जब तक संभलता है, बाँह जल जाती है, काटो तो खून नहीं, उसका दिमाग चकरा जाता है, आज तो मालिक जिंदा नहीं छोड़ेगा, मारकर फेंक भी देगा तो कौन मुझे पूँछनेवाला है, वह काँप जाता है, मन में तरह- तरह की शंकाएँ जन्म लेती हैं, शाम का समय है अभी कोई नहीं आया है. मौका अच्छा है भाग जाऊँ अन्यथा खैर नहीं, वह बिना पल गंवाएँ ऊपर जाता है, अपना झोला लेता है, बिना चप्पल पहिने दरवाजा खोलकर
बेतहाशा भाग निकला, चलते-चलते एक बस पकड़कर स्टेशन पहुँच जाता है, जो ट्रेनें खड़ी थीं उसी में चढ़ जाता है, ट्रेन में टिकिट चेक होता है, वह बाथरूम में छिप जाता है, रात्रि का समय है, चुपचाप एक कोने में खड़ा है ट्रेन अपने वेग से चल रही है, दिमाग भय से सुन्न है, अब तो जेल जाना पड़ेगा, एक मुसीबत से निकले तो दूसरी ने घेर लिया। तभी वह धीरे से दरवाजा खोलता है, शोर बढ़ गया है, कुछ लोग बिना टिकिट पकड़े गए हैं, गाड़ी थोड़ी धीमी होती है, वह कूद जाता है। बेतहाशा भाग रहा है, पता नहीं कहाँ, धीरे-धीरे सुबह हो गई, अपने को एक घने जंगल में पाता है। वह तब से चल रहा है, अभी तक मार्ग का पता नहीं, तभी उसे कुछ बस्ती दिखती है, राहत की साँस लेता है। अब बच जायेगा कहीं मेहनत मजदूरी करके पैसा जोड़ेगा, घर जायेगा, फिर से पढ़ाई करेगा, माँ खुश हो जायेगी। एक नन्हीं सी आशा की जुगनू टिमटिमाती है, खोई हुई शक्ति वापिस आ जाती है। वह मन ही मन दोहराता है, "चरैवेति-चरैवेति" चलनेवाले को ही मंजिल मिलती है, मुझे भी मेरी मंजिल मिलेगी। और वह मुस्कुरा देता है, एक नई सुबह की आस में।