: संकलित
संत रामानुज एक महान संत और दार्शनिक थे। दूर-दूर से लोग उनसे मार्गदर्शन और सलाह मशविरा के लिए आते थे। एक दिन एक युवक उनके पास आया वह बोला, 'स्वामी जी मुझे अपना शिष्य बना लें' रामानुज जी ने उससे पूछा तुम मेरे शिष्य क्यों बनना चाहते हो? इस पर वह युवक बोला, 'मैं परमात्मा से प्रेम करके उनमें विलीन होना चाहता हूँ। रामानुज ने उससे फिर पूछा क्या तुमने कभी किसी से प्रेम किया है? उस युवक ने जवाब दिया, नहीं, स्वामी जी मैंने कभी किसी से प्रेम नहीं किया। फिर स्वामी ने उससे पूछा 'क्या तुम्हें अपने माता-पिता, भाई- बहिन से स्नेह है! युवक ने रोते हुए कहा- 'स्वामी जी लोभ लालच संभरी इस दुनिया में स्नेह कहाँ? यह सब मिथ्या जाल है, इसलिए तो मैं आपकी शरण में आया हूँ। तब संत रामानुज ने कहा, 'बेटा और तेरा गुरु शिष्य का सम्बन्ध हो ही नहीं सकता क्योंकि जो तुझे चाहिए वह मैं तुझे नहीं दे सकता'। युवक सुनकर रोने लगा। उसने कहा संसार को मिथ्या मानकर मैंने किसी से प्रीति नहीं की। परमात्मा के लिए मैं इधर-उधर भटका। सब कहते थे कि परमात्मा के साथ प्रीति जोड़ना हो तो संत रामानुज के पास जा, पर आप तो इनकार कर रहे हैं। संत रामानुज ने कहा, यदि तुझे तेरे परिवार से प्रेम होता, तूने कभी किसी से स्नेह किया होता तो मैं उसे विशाल स्वरूप दे सकता था। थोड़ा साभी प्रेमभाव होता, तो मैं उसे विशाल बनाकर परमात्मा के चरणों तक पहुँचा सकता था। छोटे से बीज से विशाल वटवृक्ष बनता है। परन्तु जब बीज ही नहीं है तो उससे वृक्ष कैसे बनेगा। जो पत्थर जैसा कठोर और शत्रु है उसमें मैं प्रेम का झरना कैसे बहा सकता हूँ। तूने किसी से भी प्रेम किया ही नहीं तो तेरे भीतर परमात्मा के प्रति प्रेम की गंगा कैसे बहा सकता हूँ। तूने किसी से भी प्रेम किया ही नहीं तो तेरे भीतर परमात्मा के प्रति प्रेम की गंगा कैसे बहा सकता हूँ?
कहानी का तात्पर्य यह है कि परिवार से स्नेह ही उस परम पिता परमेश्वर से प्रेम का रास्ता है, यदि हमें आध्यात्मिक प्रेम चाहिए तो हमें अपने धर्म कर्त्तव्यों का उत्तम रीति से पालन करना होगा। स्नेह, प्यार, प्रेम के बिना जीवन शून्य है ईश्वर का नाम ही प्रेम है, ईश्वर प्रेम ही तो है, और प्रेम से ही जीवन में मुस्कान आती है।