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दायरा

: डॉ. अनिता तिवारी

 

अरे ! तुम अभी तक बिस्तर में पड़ी-पड़ी आराम फरमा रही हो, घर का क्या हाल हो रहा है? ऑफिस से आते ही निरंजन अपनी पत्नी 'आरती' पर बरस पड़ा।

निरंजन की बात सुनकर भी, 'आरती' ने अनसुनी कर दी। उसने कोई जबाव नहीं दिया। वह चुपचाप लेटी रही आरती एक पढ़ी-लिखी व समझदार स्त्री थी, घर गृहस्थी संभालना उसे अच्छी तरह से आता था। वह काफी सहनशील थी, इसके विपरीत निरंजन काफी तेज स्वभाव का था। आये दिन बात-बात पर बहस करना उसकी आदत थी।

आज आरती की तबियत ठीक ना थी. इसलिए वह चुपचाप बिस्तर पर पड़ी हुई थी। सुबह निरंजन के ऑफिस जाने के बाद उसकी बहन मल्लिका अपने चार बच्चों के साथ अपने भाई के घर आई थी। मल्लिका के बच्चे बड़े शैतान थे, उन्होंने जी भरकर घर में धमा चौकड़ी मचायी, घर का सारा सामान इधर-उधर फेंका। खूब मस्ती की। माँ ने भी बच्चों को डाँटना उचित ना समझा। ना ही सामान को व्यवस्थित रखा।

आरती को रह-रहकर पेट में काफी दर्द हो रहा था मल्लिका के पति सागर से आरती का कष्ट देखा न गया वह पास के मेडिकल स्टोर में गया, वहाँ से वह दर्द और बुखार की कुछ टेबलेट ले आया।

दवाई खाकर आरती को कुछ आराम लगा, उसे सुस्ती सी आने

लगी, तभी सागर ने कहा-भाभी हमें कुछ जरूरी काम से आज ही बाहर जाना है आप आज्ञा दें तो। मुझे अब काफी आराम है, आपके भैया भी एक आध घण्टे में आते ही होंगे। आरती ने कहा।

मल्लिका बोली-ठीक है भाभी फिर हम चलते हैं सागर ने इशारा किया मल्लिका। ये फैला बिखरा सामान तो समेट दो।

'अब भाभी को आराम लग रहा है ना, भाभी ठीक से रख देंगी। मल्लिका काफी आलसी स्वभाव की थी, काम- धाम उससे कुछ भी नहीं होता था. अतः वह बात को टालमटोल कर चली गई।

दवा खाने के बाद आरती को काफी अच्छा लग रहा था वह आँखें बंद किए चुपचाप लेटी रही। उठने की उसकी कई बार इच्छा हुई परन्तु उठकर बैठने की हिम्मत ना की।

शाम हो चुकी थी निरंजन ऑफिस से आ चुका था, आज उसका दिमाग बहुत गरम था जब भी वह गुस्से में होता था बिल्कुल आग- बबूला हो जाता था, अच्छा बुरा उसे कुछ भी समझ में नहीं आता था। गुस्से में वह सारे मानवीय मूल्यों और संवेदनाओं को ताक पर रख दिया करता था।

वह आरती से मन-ही-मन चिढ़ता भी था, कभी भी उसके जीने मरने की परवाह नहीं करता था। आरती निरंजन के इस व्यवहार से काफी क्षुब्ध रहती थी।

ऑफिस से आते ही वह आरती पर भड़क उठा, बोला, ये भी कोई सोने का वक्त है। देखती नहीं तुम, मैं ऑफिस से आ चुका हूँ। ये घर का क्या हाल बना रखा है? निरंजन तल्ख आवाज में चिल्लाया।

आरती कुछ ना बोली, निरंजन ने कोध में कहा-क्या सुना नहीं तुमने, मैंने क्या कहा ? 'सुन लिया है आरती ने धीरे से कहा।' 'सुन लिया है तो, मेरी बात का जबाव क्यों नहीं दिया।' निरंजन बोला- 'उसकी जरूरत नहीं समझी आरती ने कहा।' क्या कहा-जरूरत नहीं समझी। तुम्हारी ये मजाल कि "तुम निरंजन बाबू से जबान लड़ाओ"। आरती ने कहा, देखो निरंजन आज मेरी तबियत कुछ ठीक नहीं हैं, मेरे हाथ-पैर बिल्कुल काम नहीं कर रहे हैं। शादी के आज 5 वर्षों बाद मेरी ऐसी तबियत हुई है। आज काम वाली भी छुट्टी पर है। इसलिए घर अस्त- व्यस्त हो रहा है। तुम्ही सोचो जब मेरा उठकर बैठना ही मुश्किल है, तो भला मैं घर का काम कैसे कर सकती हूँ। आज मल्लिका बच्चों के साथ आई थीं आपके भांजे-भांजियों ने ही घर का ये हाल किया है। अच्छा, बच्चे तो बच्चे ही होते हैं, जब बच्चे सामान फैला रहे थे, तब तुम बैठी-बैठी तमाशा देख रही थी। निरंजन बोला- 'मैंने कहा ना, मेरी तबियत ठीक नहीं थी' आरती बोली- निरंजन और भड़क गया, कैंची की तरह बड़ी तेज जबान चलने लगी है तुम्हारी, लगता है इसे कुतरना ही पड़ेगा। कल से काम वाली की छुट्टी कर देता हूँ। सारा काम हाथ से करोगी, तो तबियत अपने आप ही ठीक हो जाएगी। आज से पहले आरती ने कभी निरंजन को जबाव नहीं दिया था परन्तु आज आरती की भी सहन शक्ति समाप्त हो रही थी। वह तिलमिला उठी और बोली आप कैसी फिजूल बातें किए जा रहे हैं। आज तक आपने कभी मुझे इस तरह से बिस्तर पर पड़े हुए देखा है। हाल- चाल पूछना तो दूर, जो जी में आए, बोले जा रहे हो।

'आखिर ऐसा क्या गुनाह कर दिया है मैंने।'

'गुनाह तुम क्या करोगी? औरत जाति ही अपने आप में एक गुनाह है, इसलिए मैं इस औरत जाति से ही नफरत करता हूँ, नफरत'। निरंजन ने कहा। यदि तुम्हें औरत जाति से इतनी ही नफरत थी, तो मेरी जिन्दगी बरबाद करने का हक तुम्हें किसने दिया था? निरंजन ।

ये बात आरती अपनी सारी ताकत समेट कर बोली। आरती के मुँह से बार-बार अपना नाम सुनकर निरंजन बौखला उठा औरत आदमी का नाम ले ये बात उसे कतई पसंद नहीं थी। वह भड़क गया और बोला- अपने दायरे में रहो आरती, हद से आगे बढ़ने की कोशिश मत करो अरे! तुम औरत हो औरत की तरह रहो। पुरुषों का नाम लेकर उनसे बराबरी करने की कोशिश मत करो। कभी सोचा है तुमने, पुरुषों की छत्रछाया में पलने वाली औरतों का कभी कोई वजूद रहा है क्या?'

आरती एम.ए. पास थी, फर्राटे दार अंग्रेजी बोलती थी। बचपन से ही पढ़ाई में होशियार थी। बातचीत का अच्छा ज्ञान था उसे, हर मुद्दे पर बहस करने की क्षमता थी उसमें, परन्तु वह निरंजन के सामने सदा से झुकती आई थी, इसलिए निरंजन हमेशा उसका बात-बात में मखौल उड़ाता था। निरंजन आरती को अपनी पत्नी कम दुश्मन अधिक मानता था। आरती अपने पति के स्वभाव से चिर परिचित थी, इसलिए कभी उसे कोई जबाव नहीं देती थी। आज भी उसका लड़ने का मूड नहीं था परन्तु निरंजन उसे उकसाता जा रहा था।

बातचीत काफी हद तक बढ़ती जा रही थी आज तक चुप रहने वाली आरती निरंजन की हर बात का जबाव देना चाहती थी, भला ऐसे में वो चुप क्यों रहती, जब निरंजन ने सारी स्त्री जाति के वजूद को ललकारा था।

'वह बोल उठी-कैसा दायरा, निरंजन, “अब स्त्री और पुरुष के बीच कोई दायरा नहीं रहा ये तो औरत की महानता और उसके संस्कार हैं जो पति को परमेश्वर समझकर स्वयं के द्वारा बनाए गए दायरें में रहती है। वह अपने मर्यादा और संस्कार के बंधन को तोड़कर उससे निकलना नहीं चाहती है और अपने आदर्शों को तोड़ना नहीं चाहती वर्ना उसे उसके दायरे में कोई सिमटाने का साहस ही नहीं कर सकता। औरत है, इसीलिए यह सृष्टि है, यह सृष्टि है इसीलिए तुम भी हो निरंजन। स्त्री के बिना इस संसार की कल्पना ही नहीं की जा सकती, औरत किसी की आश्रिता नहीं है, वह स्वयं एक आश्रय है। लगता है आपने भारतीय नारियों की महानता के किस्से नहीं सुने वरना औरत के दायरे को कभी छोटा नहीं कहते।"

आरती ने ये सारी बातें बड़े आवेश में आकर कह दीं थी। भाषण देना तुम बहुत अच्छे से सीख गई हो, आज तो तुमने ये तहजीब भी खो दी कि तुम किससे बात कर रही हो।

निरंजन ने कहा-

आरती बोली- 'आज आपने ही मुझे बोलने पर विवश किया है।'

निरंजन ने कहा- बोलने पर विवश नहीं किया ये तो तुम भगवान का शुक्र मनाओं कि तुमने बक बक की और मेरा हाथ नहीं उठा वरना तुम अपने ही दिए हुए भाषणों पर पछताती और आगे कभी बोलने की हिम्मत नहीं करती।

साँच को आँच नहीं आती, मेरी बातों में सच्चाई है उसे आप ऊपर से ना सही, पर मन में स्वीकार रहे हो इसीलिए तो...।

आरती कभी अपना वाक्य पूरा भी नहीं कर पाई थी कि 'निरंजन ने एक जोरदार चांटा आरती के गाल पर जड़ दिया।

चाँटा इतना तेज था कि आरती का पूरा दिमाग घूम गया और हाथ की उंगलियों के निशान उसके गाल पर पड़ गए।

इतने पर भी निरंजन का गुस्सा शांत न हुआ, वह बोला, औरतों की महानता का बड़ा बखान करती है अब बोलो क्या कर सकती हो मेरा। मैं चाहूँ तो इसी वक्त तुम्हें घर से निकाल सकता हूँ।

गाल पर हाथ रखे हुए आरती पलंग से उठकर खड़ी हो गई। उसका खून खौलने लगा, उसने कहा, करने को तो मैं बहुत कुछ कर सकती हूँ निरंजन, यदि करना चाहूँ तो, मैं ऐसा भी कर सकती हूँ, जिसकी तुम कभी कल्पना भी नहीं कर सकते। ज्यादा डींगे मत हाँकों, तुम औरत हो औरत की तरह रहो, पुरुषों से बराबरी करने की कोशिश मत करो 'अरे! तुम तो मेरे पैर की जूती हो, जूतियाँ पैर में ही शोभा देती हैं सिर

पर नहीं।' निरंजन ने कहा।

'ये तुम्हारा वहम् है, आरती चीखी, जूतियाँ पैरों पड़कर पैरों की रक्षा कवच बनकर सुरक्षा ही करती हैं। काँटों व ठोकरों से. छिलने-कटने से, पैरों को बचाती हैं। यदि यह पैरों से निकल जाए तो पैरों को चीर फाड़ीगी देती हैं, फिर ये पुरुष घायल कदमों से दो कदम भी नहीं चल पाता है।'

लगता है मार खाकर भी तुम्हारा दिमाग ठिकाने नहीं आया। लड़ने के लिए तुम बिल्कुल स्वस्थ हो, बहाना बीमारी का लगा रखा है कितनी नीच हो तुम इसका अंदाजा तुम्हारे सवाल जबाव से ही लगाया जा सकता है निरंजन बोला।

ये तो अपना-अपना दृष्टिकोण है, आरती बोली, हर नीच पुरुष को स्त्री नीच ही नजर आती है।

निरंजन झुंझला उठा, वह आरती के बदले हुए स्वभाव से खुद चकित था, उसने आरती को दोबारा मारने के लिए हाथ आगे बढ़ाया, इस बार आरती ने उसका हाथ पकड़ लिया और बोली, 'इस हाथ को पीछे ही लौटा लो यही अच्छा होगा।'

'अच्छा, तुम मुझे चुनौती देती हो, निरंजन बोला। अब तुम्हारा मुँह बंद करने का एक ही रास्ता है मेरे पास है मैं तुम्हें अभी घर से बाहर निकालता हूँ। फिर देखता हूँ कि तुम कितना सवाल-जबाव करती हो। किसके सहारे जिंदा रहती हो।' आरती ने कहा- सहारे की बात मत करो, स्त्री पुरुष से ज्यादा शक्तिशाली रही है। सहारा उसे नहीं, सहारा तो पुरुष को चाहिए क्योंकि सहारे की ज्यादा जरूरत उसे ही पड़ती है। पुरुष किसी स्त्री के सहारे का मोहताज नहीं होता समझी, निरंजन बोला।

आरती ने कहा- 'जानती भी हूँ और समझती भी हूँ ज्यादा दूर जाने की जरूरत नहीं अपनी भाभी को ही देख लो शादी के दो वर्ष भी पूरे नहीं हुए थे कि तुम्हारे भैया का दुर्घटना में निधन हो गया। तब से लेकर आज तक की उम्र तुम्हारी भाभी ने अकेले रहकर ही काटी हैं ना आप लोगों ने उन्हें जब सहारा देना चाहा, तो उन्होंने यही कहा था ना कि मैं किसी पर आश्रित नहीं रहूँगी। किसी पर बोझ नहीं बनूँगी, बहुत हिम्मत है मुझमें, मैं उसी के सहारे जी लूँगी, एक पतिव्रता स्त्री अपने सतीत्व के बल पर ही अपना जीवन यापन कर लेती है। समाज में संघर्ष कर कर ही जी लेती हैं, हँसती है तथा मुस्कराती हैं।'

आरती की बात सुनकर निरंजन कुछ झेंप सा गया.

आरती फिर बोली-और ये शक्तिशाली पुरुष पत्नी के मरते ही दूसरा विवाह कर लेता है। बिना पत्नी के सहारे वह अपने आपको असहाय महसूस करता है। वह अकेले न घर सम्भाल सकता है और ना ही बाहर, में पूछती हूँ, पुरुष एकाकी जीवन क्यों नहीं जी पाता सहारे की जरूरत तो औरत को होती है। फिर भी वह इस समाज में अकेली रहकर जीती है, स्वाभिमान से सिर ऊँचा करके चलती है। शक्तिशाली पुरुष अपने घुटने क्यों टेक देता है?

क्यों? सच कहा न मैंने आरती बोली-

तुम कितने भी तर्क वितर्क कर लो आरती, जो सच है वह सच है।

निरंजन ने कहा।

क्या सच है, आरती बोली-

यही कि औरत कमजोर है कमजोर, बिना पुरुष के सहारे के उसका अस्तित्त्व नहीं।

तुम कुछ भी कहते रहो, मैं ऐसा नहीं मानती औरत शक्ति नहीं, बल्कि महाशक्तिशाली है। वह अपनी रक्षा और सुरक्षा में समर्थ है। स्त्री में जितनी ताकत है उसका तुम अंदाजा भी नहीं लगा सकते।

क्या तुमने सुना नहीं, सावित्री अपने पति सत्यवान के प्राणों को वापस लाने के लिए स्वर्ग तक पहुँच गई थी, यमराज तक को परास्त कर दिया था और सत्यवान के प्राणों को वापस ले आई थी।

और सुनों सीताजी को हरकर जब महाबलशाली रावण लंका ले गया था, तो अशोक वाटिका के नीचे रहते हुए सीताजी ने अपने प्रताप से अपनी रक्षा की थी।

दुष्ट रावण उनकी परछाई तक का स्पर्श नहीं कर सका था। इस पुरुष प्रधान समाज ने जब उनकी परीक्षा लेना चाहा तो सीताजी ने सहर्ष उसे भी स्वीकार कर लिया। अयोध्या की महारानी होते हुए भी वन-वन नंगे पैरों से विचरण किया।

राजसूर्य यज्ञ के दौरान जब जगतात्मा सीता जी की पुनः परीक्षा लेने की बात हुई तो उन्होंने यह कहकर नकार दिया कि "इस धरती पर नारी जाति को कितनी परीक्षाएँ देनी होंगी। इतना कहकर वे धरती माँ की गोद में समाहित हो गई।" पुरुष हमेशा से स्त्रियों पर अत्याचार करता आया है। हमेशा उसकी उपेक्षा करता आया है। औरत के धैर्य और उसकी सहनशीलता का सदा से गलत प्रयोग करता आया है।

राम ने सीता का परित्याग कर लोकमर्यादा की रक्षा की थी। जंगल में भी सीता को पितातुल्य बाल्मीकि का ही आश्रय लेना पड़ा था। वह भी तो एक पुरुष ही थे। क्या बाल्मीकि के नहीं मिलने पर सीताजी उस विशाल जंगल में अपनी सुरक्षा कर सकती थीं। निरंजन बोला।

हा, हा, बिल्कुल कर सकती थी, शायद आपको पता नहीं द्रोपदी के पाँच पति थे। जब उसका चीरहरण हो रहा था। तब उस सभा में कोई भी पुरुष आगे नहीं बढ़ा। उस भरी सभा में नीतिवान, धर्मवान, बलवान सभी बैठे थे। स्त्री के नाम पर सिर्फ अकेली द्रोपदी थी। द्रोपदी ने अपने पुण्य प्रताप से अपनी रक्षा स्वयं की थी। आरती ने कहा। लेकिन दोपदी रक्षा की भी एक पुरुष ने ही की थी। निरंजन बोला।

ईश्वर स्त्री और पुरुष का भेद नहीं करता द्रोपदी की भक्ति और शक्ति ने ही कृष्ण को सभा में नंगे पैर बुला लिया था। आरती ने कहा ।

हरदम मौन रहने वाली आरती की आज हाजिर जबाबी सुनकर निरंजन आश्चर्य चकित था। वह मन ही मन सोच रहा था कि आखिर आज आरती को क्या हो गया है? वह अपने आप पर शर्मिन्दा हो रहा था। और सुनने की क्षमता उसमें ना थी। वह चिल्लाकर बोला, अच्छा अब तुम चुप हो जाओ, मेरा सिर फटा जा रहा है। अब मैं आगे कुछ भी नहीं सुन सकता। आरती चुप हो गई, इतना बोलकर उसे काफी हल्कापन महसूस हो रहा था। वह सोचने लगी कि निरंजन उस पर कितने दिनों से अत्याचार करता चला आ रहा था और औरत जाति को सदा भला बुरा कहता चला आ रहा था। औरत के विस्तृत दायरे को वह सुई की नोंक से नापता आया था। आज आरती ने औरत के दायरे और उसके बृहत दृष्टिकोण को उसने एक चाँटें के जबाव में बखूबी समझा दिया था। अब निरंजन के पास कहने को कुछ भी नहीं बचा था। अतः वह चुपचाप जाकर लेट गया। आरती भी दो चार मिनट चुपचाप बैठी रही,

सामने टगी घड़ी पर नजर गई तो देखा शाम के 7.30 बज रहे थे, वह उठी उसने जल्दी-जल्दी घर का फैलाउ बिखरा सामान यथा स्थान रखा। फिर उसने हाथ मुंह धोकर अपने बिखरे हुए बालों को सँवारा फिर वह रसोई में गई उसने दो कप चाय बनाई तथ साथ में थोड़ा नमकीन व बिस्किट लेकर निरंजन के कमरे में गई। निरंजन आँखें बंद किए हुए चुपचाप लेटा था। आरती कुछ देर तक उसे देखती रही फिर बोली- गुस्सा थूक दीजिए, देखिए आपके लिए गर्मागम चाय बनाकर लाई हूँ, इसे पी लीजिए ।

मैंने भी आज सुबह से कुछ नहीं खाया-पिया। निरंजन थोड़ी देर तक चुपचाप लेटा रहा, फिर जाने क्या सोचकर उठा, उसने चाय पी, आरती चुपचाप मौन साधे बैठी रही तथा बाद में ट्रे लेकर अन्दर चली गई। फिर उसने जल्दी-जल्दी निरंजन की पसंद का भोजन बनाया और थाली सजाकर निरंजन से बोली भोजन तैयार है। आपको भूख लगी होगी, वह हाथ मुह धोकर थाली के पास बैठ गया। अपनी पसंद का भोजन देखकर, उसका मन प्रसन्न हो गया। निरंजन अच्छे भोजन का बड़ा शौकीन था उससे रहा ना गया, वह जल्दी से कौर तोड़कर मुँह में रखने ही वाला था, कि देखा सामने आरती खड़ी है। निरंजन कुछ सकपकाया, फिर बोला, "आरती औरत के प्रति संकीर्ण विचारों को रखने वाला ये निरंजन आज तुम्हारे जबाबों से हार गया। सचमुच औरत का दायरा बहुत व्यापक है। मैं उसे कभी समझ ही नहीं पाया।" इतना कहकर वह चुप हो गया, उसकी आँखों में प्रायश्चित के बादल तैरने लगे। आरती भी निरंजन के इस बदले हुए व्यवहार से काफी आश्चर्यचकित थी। निरंजन अब एक अच्छा इंसान बन जाएगा, यह सोचकर वह काफी प्रसन्न थी। वह बस इतना ही बोल पाई-सुबह का भूला हुआ साँझ को वापस घर आ

जाए तो उसे भूला नहीं कहते।