सर्वे भवन्तु सुखिनः
■: अलका कुमार
बाल्यावस्था से ही ये श्लोक सुनते आये हैं
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया सर्वे भद्राणि पश्यन्तु
मा कश्चिद् दुःख भाग्भवेत। परन्तु हमेशा से ये बस एक श्लोक ही था। कभी किसी के व्याख्यान में प्रयोग होता तो कभी किसी निबंध में। समझ में आता था कि श्लोक का अर्थ कुछ अच्छा ही है, सभी के सुखों की कामना की बात करता है परन्तु मेरा उस से कुछ व्यक्तिगत तौर पे सम्बन्ध भी हो सकता है ऐसा तो विचार भी कभी नहीं आया।
सदियों से प्रचलित ये श्लोक गरुण पुराण में पढ़ने को मिलता है। यह मन्त्र भारतीय संस्कृति व भारतीय परम्पराओं का उद्घोषक है। 'वसुधैव कुटुम्बकम' की भावना का पूरक है। वह संस्कृति जिसमें पूरी पृथ्वी ही एक कुटुंब है वहाँ सभी
के सुखों की मंगल कामना करना, सब के रोगमुक्त रहने की कामना करना तो स्वाभाविक ही है। सदैव 'स्व' से पहले 'पर' के विषय में सोचना, औरों के सुख-दुःख के प्रति जागरुक रहना व उनके मंगल की कामना करना यही भारतीय संस्कृति का मूलभूत आधार है। दुर्भाग्यवश, यद्यपि यह श्लोक सुना सभी ने है परन्तु उसका भावार्थ समझने का प्रयत्न नहीं किया। परिणामस्वरूप, सर्वे भवन्तु सुखिनः से हम 'स्वान्तः सुखाय' की सोच पर आ कर रुक गए हैं।
'स्व' से पहले 'पर' नहीं बल्कि केवल 'स्व' पर ही हमारा ध्यान आकर केंद्रित हो गया। आज के भौतिकवादी युग में, जहाँ हर व्यक्ति एक अजीब सी दौड़ में लगा हुआ है, जहाँ हर व्यक्ति दूसरे के सर पर पाँव रख कर ऊपर चढ़ने की चेष्टा में लगा हुआ है, जहाँ भौतिक चमक दमक व बाहरी दिखावा ही
सामाजिक सफलता का प्रतीक बन कर रह गए हैं वहां दूसरों के सुखों व निरोग होने की मंगल कामना करना हास्यास्पद न सही, विरोधात्मक अवश्य लगता है। हर एक का जीवन तनाव, रोग व व्यस्तता से ऐसे ग्रसित है कि व्यक्ति अपने से अलग कुछ सोच ही नहीं पाता। यद्यपि स्वान्तः सुखाय का भी अपना एक महत्व है परन्तु इस सन्दर्भ में कदापि नहीं। हर वो परोपकारी कृत्य जो दिखावे या अपेक्षा के बजाए किसी दूसरे को बिना बताए किया जाए, वह स्वान्तः सुखाए की श्रेणी में आता है। भौतिकता से ऊपर उठकर अपनी आध्यात्मिक उन्नति के लिए क्रियाशील हो वह स्वान्तः सुखाए की श्रेणी में आता है परन्तु समाज, परिवार, राष्ट्र, मानव जाति, किसी की भी चिंता किए बगैर केवल 'स्व' के सुख में लिप्त रहना कदापि स्वान्तः सुखाये का अभिप्राय नहीं हो सकता।
आज के परिवेश में मानवीय मानसिकता को घोर कलियुग में लुप्त होने से बचाने के लिए यह आवश्यक है कि इस श्लोक को पुनः उद्घोषित करें व इसका बीड़ा हम सभी को उठाना होगा। वस्तुतः यह इतना कठिन भी नहीं है। किसी भी सोच की शुरुआत पारिवारिक स्तर पर बड़ी आसानी से की जा सकती है। और घर की स्त्री का इसमें बहुत बड़ा योगदान हो सकता है। यदि हम परिवार की आज की संकीर्ण परिभाषा से ऊपर उठ सकें जिसमें केवल पति-पत्नी व एक या दो बच्चों की जगह होती है, यदि हम अपने कुटुंब, अपने नातेदार, अपने गाँव वालों, अपने पड़ोसियों को पुनः अपना परिवार मानने लगें जिसमें सभी लोग काका, ताऊ, मौसी, भाभी ही होते हैं वहां अपनों की मंगल कामना करना तो स्वाभाविक ही होता है। स्त्रियों का योगदान इसलिए महत्वपूर्ण होता है क्योंकि घर में बच्चों को संस्कार देने वाली तो माँ ही होती है। न केवल सही शिक्षा देकर, अपितु अपने स्वयं के व्यवहार से व आचरण से वो बच्चों में सद्गुण डाल सकती है।
यद्यपि तुलसीदास ने रामचरित मानस के उत्तरकाण्ड में मनुष्य के जो गुण 6 दुर्गुण 8 गिनाए हैं, उनमें प्रमुख हैं स्वार्थ, लोभ, वासना, कपट, पैष्टिक प्रवृत्ति इत्यादि और आज हम अपने चारों ओर यही सब
देख भी रहे हैं परन्तु हमारी सनातन
परंपरा, हमारी सांस्कृतिक धरोहर इससे बिलकुल अलग त्याग, प्रेम सद्भाव, करुणा अथवा दैविक प्रवृत्ति की बात करती है। यह सत्य है कि समय के साथ-साथ मनुष्य की प्रवृत्ति में गिरावट आई है परन्तु यह भी सत्य है कि जब जागो तभी सवेरा हो जाता है। अतः यदि आज हम चेत जाएँ तो इस मानसिक व चारित्रिक हास को पलट पाना असंभव न होगा और यह इतना कठिन भी नहीं है यदि हम मन में ठान लें।
आज जिस प्रकार मानव न केवल एक दुसरे के साथ लड़ भिड़ रहा है बल्कि धरती, वायु, आकाश,
जल इन सब को भी दूषित प्रदूषित कर रहा है। इससे किसी का भी भला नहीं बल्कि बहुत बड़ा नुकसान ही हो रहा है। अतः पेड़, पौधे, जंगल, पशु, पक्षी इन सबके प्रति भी स्नेह व उदारता का भाव रखना आवश्यक है। आने वाली पीढ़ी के लिए यदि हम एक सुरक्षित व कष्ट रहित दुनिया छोड़ कर जाना चाहते हैं तो हमें इस पर यद्ध स्तर पर काम करना होगा। निर्भय व निरोग होकर आपस में प्रेम व सद्भाव से रहें तो यह धरती स्वर्ग तुल्य हो जाएगी और यही मेरी कामना है।