ईश्वर सृष्टि की सम्पूर्णता का प्रतीक
■: डॉ. ए. पी. जे. अब्दुल कलाम
प्र. एक छोटे शहर से बड़े शहर में रहने और काम करने आई लड़की के रूप में मुझे लगता था कि मेरे जीवन में सम्भावनाएँ ही सम्भावनाएँ भरी पड़ी थीं। समाज ने मुझपर जिस तरह के तौर-तरीके थोपने चाहे, मैंने उसे स्वीकार नहीं किया। यह सफ़र आसान नहीं था। मुझे तरह-तरह से परेशान किया गया, और इस सब का मैंने सामना किया। लेकिन इस सब से गुजरने के बावजूद मैंने हार नहीं मानी। मैंने यही सीखा कि जिन्दगी में ऐसा बहुत कुछ है जिसे हासिल करने के लिए अगर लड़ाई भी लड़नी पड़े तो भी कोई बात नहीं, और मैं उनके लिए
लड़ती रहूंगी। भारत के दो पहलू हैं जिनसे मैं रोजाना रू-ब-रू होती हूँ पहला, वह खतरों से भरा भारत जिसमें ऊँच नीच और लिंगभेद के आधार पर जबरदस्त भेदभाव है, जिसकी बानगी हमें ख़बरों में देखने को मिलती है।
जहाँ लड़कियों को, सड़कों पर मँडराते उन्हें अपनी हवस का शिकार बनाने को तैयार दरिंदों से, खुद को बचाना सीखना पड़ता है। दूसरा, वह खूबसूरत भारत जो बचपन से मेरी यादों में बसा है। मैं अपने बच्चों की परवरिश यहाँ महानगर में करना चाहती हूँ, लेकिन उन मूल्यों के साथ जिन पर मेरे माता- पिता ने छोटे शहर में हमें बड़ा किया। क्या यह मुमकिन है?
सर, क्या आप बताएंगे कि भारतीय महिलाओं के लिए किस तरह के लोगों का अनुकरण करना ठीक होगा ?
जिन्दगी हमारी हिम्मत के अनुपात में फैलती या सिकुड़ती चली जाती है। अनाइस निन
हरेक प्रगतिशील समाज के मूल में महिला सशक्तिकरण ही है। कई सदियों तक हमारे देश में महिलाओं और उनकी जरूरतों पर ठीक से ध्यान ही नहीं दिया गया, बल्कि सच तो यह है कि उनका तिरस्कार ही होता रहा। भारत को कई हिम्मतवाली महिलाओं ने अपना सारा जीवन भारतीय महिलाओं की उन्नति के लिए समर्पित कर दिया ताकि आने वाली पीढ़ियों की महिलाएँ खुद को अन्याय और अत्याचार के क्रूर चंगुल से छुड़ा पाएँ और शिक्षा, रोजगार और राजनीति की बुलन्दियों को छू सकें।
1950 में भारत के संविधान में महिलाओं के लिए बराबरी के अधिकार और सम्भावनाओं को एक क्रान्तिकारी परिवर्तन के रूप में गढ़ा गया। परिणामस्वरूप, आज स्वतन्त्र भारत में महिलाओं की स्थिति अपेक्षाकृत बेहतर हुई है। कुछ समस्याएँ जिनसे महिलाएँ सदियों से घिरी रही थीं, जैसे बाल विवाह, सती प्रथा, विधवाओं के पुनर्विवाह की मनाही और बालिकाओं को शिक्षा के प्रति नकारात्मक रवैया जैसे चलन से अब छुटकारा मिल चुका है।
विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में हुई प्रगति, अच्छी शिक्षा और स्वस्थ्य सुविधाओं तक पहुँच बनाने के साथ सामाजिक-राजनैतिक आन्दोलनों में खुलकर हिस्सेदारी के फलस्वरूप महिलाओं के प्रति लोगों के रवैये में और भी ज्यादा बदलाव आया है। इन बदलावों की वजह से महिलाओं के मनोबल और आत्मसम्मान में बढ़ोत्तरी हुई है। पहले से ज्यादा बड़ी संख्या में भारतीय महिलाएँ जब यह महसूस करती हैं कि उनका अपना एक विशिष्ट व्यक्तित्व है, आत्मसम्मान है, खूबियाँ हैं, क्षमताएँ हैं, और योग्यताएँ हैं। बहुत सारी ऐसी महिलाएँ जो उपलब्ध अवसरों का सदुपयोग कर पा रही है, उन्होंने साबित कर दिखाया है कि वह दी गई जिम्मेदारियों को निभाने में पूरी तरह सक्षम हैं। इसके बावजूद, बदलती परिस्थितियाँ अपने साथ नई तरह की चुनौतियाँ भी लेकर आती हैं। कुछ मायनों में, बीते समय की तुलना में आज भारतीय महिलाओं को दोनों ही जगह, घर का और अपने करियर का ज्यादा बोझ झेलना पड़ रहा है जिससे नई तरह के दबाव और चिन्ताओं का सामना करना पड़ रहा है।
आपके सवाल की ओर लौटते हुए, मैं तीन महान महिलाओं की कहानियाँ आपके साथ साझा करना चाहूँगा, जिन्हें अपना आदर्श बनाया जा सकता है। मैरी क्यूरी नोबेल पुरस्कार जीतने वाली पहली महिला थीं। पोलैंड के वारसा शहर में जन्मी मैरी यानी मारिया स्कोदोव्स्का भौतिकविद और रसायनशास्त्री थीं, जो मुख्य रूप से फ्रांस में काम करती थीं। उन्हें 1903
में सहज विकरण में उनके शोध के लिए भौतिकशास्त्र का नोबेल पुरस्कार दिया गया। वह पेरिस विश्वविद्यालय की पहली महिला प्रोफेसर भी थीं। रेडियोधर्मिता के सिद्धान्त के प्रतिपादन के साथ किसी तत्व के रेडियो आइसोटोप अलग करने की तकनीक और दो तत्वों, पोलोनियम और रेडियम की खोज भी उनकी उपलब्धियों में शामिल है। रेडियोधर्मिता के गुण के लिए सारी दुनिया में प्रयोग किया जाने वाला शब्द रेडियोऐक्टिविटी भी उन्होंने ही गढ़ा था। दुनिया में पहली बार कैंसर के इलाज के लिए रेडियोऐक्टिव आइसोटोप इस्तेमाल करने के लिए सबसे पहले शोधकार्य भी उन्हीं की देखरेख में किया गया। पिता के परिवार और ननिहाल, दोनों ही की धन-दौलत और ज़मीन जायदाद इन परिवारों की देशभक्ति की भावना के चलते पोलैंड को राष्ट्रवादी क्रान्ति के यज्ञ की भेंट चढ़ गई थी, जिससे उन्हें
जिन्दगी में आगे बढ़ने की राह में कठिन संघर्ष का सामना पड़ा। उच्च शिक्षा के लिए वह फांस चली गई और वहाँ बेहद सीमित संसाधनों में बड़ी मुश्किल से किसी तरह सर्दियों के मौसम में ठंड बर्दाश्त करते हुए काम चलाया और यहाँ तक कि भूखे रहने से आई कमजोरी के कारण वह कई बार बेहोश भी हो गई।
भौतिकशास्त्र में स्नातक की उपाधि प्राप्त करने के बाद उन्होंने पियरे क्यूरी से विवाह किया और फिर दोनों मिलकर शोधकार्य में जुट गए। क्यूरी दम्पति की अपनी अलग प्रयोगशाला तक नहीं थी और संस्थान के भौतिक और रसायनशास्त्र विभाग के बगल में एक कामचलाऊ छत के नीचे वह अपना तमाम शोधकार्य किया करते थे। उस घुटनभरी जगह, जहाँ पहले चिकित्सा विज्ञान के छात्र अपनी पढ़ाई के लिए जीव-जन्तुओं की चीरफाड़ करते थे, बरसात होने पर छत से पानी चूने लगता था। ऐसी जगह, विकिरण की चपेट में आने के हानिकारक प्रभावों से बेखबर, बचाव के किसी इंतजाम के बिना वह रेडियोधर्मी पदार्थों के साथ अपने प्रयोग करते रहे। मैरी के पति की तो 1906 में एक दुःखद सड़क दुर्घटना में मृत्यु हो गई, लेकिन वह परिवार चलाने की जिम्मेदारी निभाने के साथ अपने शोधकार्य में जुटी रहीं। 1911 में, पति की मौत के पाँच साल बाद, रेडियोधर्मिता के क्षेत्र में उनके काम के महत्त्व को समझते हुए उन्हें दोबारा रसायनशास्त्र का नोबेल पुरस्कार दिया गया।
कुछ बड़ा घटने का इंतजार मत करो। जहाँ हो, वहीं से जो तुम्हारे पास है, उसी से शुरुआत करो। ऐसा करने से तुम्हारे सामने बेहतरी के रास्ते खुद-ब-खुद खुलते चले जाएँगे। उनके जीवन से आज के भारत
की महिलाओं को क्या संदेश मिलता है? कुछ बड़ा घटने का इंतज़ार मत करो। जहाँ हो, वहीं से जो तुम्हारे पास है, उसी से शुरुआत करो और ऐसा करने से तुम्हारे सामने बेहतरी के रास्ते खुद-ब-खुद खुलते चले जाएँगे। कहीं से शुरुआत तो करो-जो हम करना चाहते हैं उसके आधार पर अपनी कोई छवि नहीं बनाई जा सकती। आप इस इंतज़ार में बैठे तो नहीं रह सकते कि लोग आपके सुनहरे सपने को पूरा करके आपको भेंट कर दें। खुद आगे बढ़कर अपनी खातिर अपने सपने को साकार करना होगा। प्रतिभा हर किसी में होती है। लेकिन अपनी उस प्रतिभा को उसकी मंजिल तक पहुँचाने का जज्बा वह दुर्लभ चीज़ है जो हर किसी के पास नहीं होती।
कुछ समय पहले मैं एक किताब पढ़ रहा था जिसका शीर्षक था, एवरी डे ग्रेटनेस। मैं उस किताब में से एक कहानी आपके साथ साझा करना चाहूँगा जिससे एक महिला की अपरिमित शक्ति का पता चलता है। मेक्सिको के तिह्वाना के ला मीजा कारागार में दंगा भड़क गया था। सिर्फ छह सौ लोगों के लिए बनाए गए प्रांगण में पच्चीस हजार बन्दियों को ठूंस दिया गया था। वह गुस्से से टूटी बोतलों से पुलिस पर हमले कर रहे थे और जवाब में पुलिस गोलियाँ चला रही थी। इस भीषण लड़ाई के बीच, अचानक एक अड़सठ साल की पाँच फुट छह इंच कद वाली कमज़ोर सी महिला शान्ति बहाल करने की माँग की मुद्रा में हाथ फैलाए भीड़ के बीच जा पहुँचीं। गोलियों की बौछार को नजरअन्दाज़ करते हुए वह शान्त खड़ी रहीं और लोगों से शान्त होने के लिए गुहार लगाती रहीं और विश्वास नहीं होता, लेकिन सारे लोग शान्त हो गए ! दुनिया में और कोई ऐसा नहीं कर सकता था, लेकिन उन्होंने कर दिखाया। उनका नाम है सिस्टर एन्टोनिया ।
एक बेहद सफल व्यवसायी के घर जन्मी सिस्टर ऐन्टोनिया का बचपन का नाम मैरी क्लार्क था, और उनकी परवरिश अमेरिका में कैलिफॉर्निया के बेवरली हिल्स में खास रईसों के इलाके में हुई थी। रईसी ठाठ बाट की ज़िन्दगी के बावजूद वह लोगों के कष्ट के प्रति संवेदनशील थीं और अपने आसपास के जरूरतमन्द लोगों का ध्यान रखती थीं। कम उम्र में शादी हो गई। दूसरी शादी भी हुई। दोनों शादियों से हुए सात बच्चों की परवरिश की। अपने दिवंगत पिता का कारोबार सँभालते हुए, वह सिर्फ़ परिवार चलाने से सन्तुष्ट नहीं हुईं, बल्कि बढ़-चढ़ कर परोपकार के कामों में हिस्सा लेती रहीं। पच्चीस साल परिवार चलाने के बाद जब उनके ज्यादातर बच्चे घर से दूर चले गए, तब उन्होंने अपनी ज़िन्दगी में जबरदस्त बदलाव किया। उन्होंने अपना घर और तमाम चीजें बेच दीं और तिह्वाना के ला मीता बन्दीगृह के कैदियों की सेवा में जुट गई।
कैदियों ने उनकी बात क्यों सुनी? इसलिए सुनी क्योंकि वह अपनी इच्छा से दसियों साल से बन्दियों की सेवा में लगी थीं कैदियों की खातिर अपने सारे सुखों को तिलांजलि देकर वह हत्यारों, चोरों और मादक पदार्थों का धंधा करने वालों के बीच रह रही थीं, और उन्हें अपने बेटे बताती थीं। वह उनकी जरूरतों का ध्यान रखती थीं, उनके लिए दवाओं का इंतजाम करके उन्हें बाँटती, मरने पर दफ़नाने से पहले करात और आत्महत्या करने की सोचने वालों को समझा-बुझा कर शान्त करती थीं। प्रेम और करुणा से भरी इस तरह सफल होना चाहिए निष्काम सेवा के कारण ही कैदियों कि नारी की गरिमा बढ़े और के मन में मैरी क्लार्क के प्रति आदर समाज पर उसका असर पड़े। के भाव पनपे थे और 1994 की उस खास रात भी कैदियों ने उनकी बात मानी, जबकि उस रात कैदियों का वह बलवा ज्यादा भयावह रूप ले सकता था।
अगर महिलाएँ पुरुषों की नकल करके ही सफल हो सकती हैं, तो मुझे लगता है कि यह बड़े नुकसान की बात है। अन्तिम स्नान उद्देश्य सिर्फ सफल होना नहीं होना चाहिए, बल्कि अपने नारीत्व को संजो कर रखते हुए इस तरह सफल होना चाहिए कि नारी की गरिमा बढ़े और समाज पर उसका असर पड़े।
मैरी क्लार्क के जीवन से आज की महिला को क्या संदेश मिलता है? इस बात को जानो कि तुम कौन हो, अपने परिवार और उस पुरुष या स्त्री से अलग हटकर जिसके साथ तुमने रिश्ता गढ़ा है। पता करो कि इस दुनिया के लिए तुम कौन हो, तुम्हें क्या करना चाहिए, खुश रहने के लिए अपने आप में खुशी को महसूस करने के लिए। मेरा मानना है कि जीवन में यही सबसे जरूरी चीज है अस्तित्व के सार तत्व को खोज निकालो, क्योंकि उससे तुम जो चाहो हासिल कर सकते हो। तुम्हें किसी दूसरे की द्वितीय श्रेणी की नकल बनने के बजाय खुद अपना ही प्रथम श्रेणी का प्रारूप होना चाहिए।
8 जून 2012 को मैं पुदुच्चेरी के साधन विहीन लोगों को उन्नति और उटौरन के लिए काम करने वाली गैर- सरकारी संस्था, ला वॉलोन्तारियात (Le Voluntariat) के स्वर्ण जयंती समारोह में हिस्सा लेने पुदुच्चेरी गया। जब मैं ला वॉलोन्तारियात की संस्थापक मैडम मैडिलीन द ब्लिक (Madeleine de Blic) से मिला, तो मुझे उनमें अदम्य साहस का मूर्त रूप दिखाई दिया। युवा मैडिलीन, जो तब मैडिलीन हरमन के नाम से जानी जाती थीं, 1962 में सबसे गए-बीते गरीबों के लिए अपना एक साल समर्पित करने बेल्जियम से भारत आई। शुरुआत में उन्होंने क्लूनी सिस्टर्स हॉस्पिटल के प्रसूति विभाग में काम किया, जहाँ उन्होंने एक मुफ्त क्लीनिक भी चलाया। फिर उन्होंने गरीब और जरूरतमन्द लोगों की मदद के लिए ला वॉलोन्तारियात की स्थापना की। उन्होंने आरनू द ब्लिक से विवाह किया, जो फ्रेंच लीसए (French Lycée) में काम करने के लिए आए, और फिर वापस नहीं गए। उनके दो अपने बच्चे हुए, और दो उन्होंने लावारिस बच्चों को गोद लिया।
तुम्हें किसी दूसरे की द्वितीय श्रेणी की नकल बनने के बजाय खुद अपना ही प्रथम श्रेणी का प्रारूप होना चाहिए। अपने अस्तित्व के सार तत्व को खोज निकालो, क्योंकि उससे तुम जो चाहो हासिल कर सकते हो।
पिछले पाँच दशकों के दौरान, इस मिशन ने बहुत सारे बच्चों को शिक्षा से सशक्त बनाया, बेसहारा औरतों और कोढ़ के मरीजों के पुनर्वास का काम किया, और आसपास के इलाके में जैविक खेती को बढ़ावा दिया। ला वॉलोन्तारियात की ओर से छोटे बच्चों की देखरेख के लिए आँगनवाड़ी और इलाज के लिए स्वास्थ्य केन्द्र की व्यवस्था है, अनेक सांध्य विद्यालय हैं जहाँ संस्था की ओर से 1600 से ज्यादा छात्रों के भोजन की व्यवस्था है। संस्था ने लगभग 1300 बच्चों को संरक्षण दिया हुआ है, और इसके लिए करीब 200 लोग काम करते हैं।
जब मैंने ला वॉलोन्तारियात की सेवाओं पर गौर किया, तो मुझे वह सीख याद हो आयी जो महात्मा गाँधी की माँ ने उन्हें तब दी थी जब वह नौ साल के थे। उन्होंने कहा था- 'बेटा, अगर तुम अपने पूरे जीवन में किसी की जान बचा सकते हो, या किसी की जिन्दगी बेहतर बना सकते हो, तो समझो कि इंसान के रूप में तुम्हारा जन्म और तुम्हारा जीवन सफल है। तुम्हें सर्वशक्तिमान ईश्वर का वरदान मिल गया।'
मैडम मैडिलीन ने पिछले पाँच दशकों में हजारों लोगों की जान बचाई है और उनकी इस अद्वितीय सेवा के लिए हम सब उनके आभारी है। लोग प्यार से उन्हें 'अम्मा ! मैडिलीन अम्मा !' कहते हैं, और सहृदयता के यही बोल वहाँ गूँजा करते हैं। जब मैं उनसे मिला तो मुझे उनमें मदर टेरेसा का सेवाभाव और फ्लोरेंस नाइटिंगेल का दयाभाव देखने को मिला।
इन तीन कहानियों से हमें क्या संदेश मिलता है? वास्तव में स्त्री पर आकर ईश्वर की सृष्टि अपनी सम्पूर्णता को प्राप्त करती है। सृजन करने, पालन-पोषण और परिवर्तन की शक्ति उसी में निहित है।
इक्कीसवीं शताब्दी की उभरती हुई स्त्री को दिल, दिमाग, शरीर और आत्मा से सशक्त होना चाहिए। शक्ति और उत्साह, सामर्थ्य और संवेदना का साथ आवश्यक है।