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विचार सागर मंथन

पृथ्वी ही परिवार है

 

'संस्कृि भूमि एवं जिस पर रहने वाले जम और द्वारा विचार रहन-सह कार्यकलापभाषा आदि आदि उनकी संस्कृति इनका (भू जन संस्कृति ही देश राष्ट्र के रूप में जाना जाता है या इसे यूँ भी सकते हैं कि भूजन, संस्कृति से मिलकर एक देश अथवा राष्ट्र का निर्माण होता है। विश्व में आज जिसने भी पेश है उन सब की संस्कृति ही उनकी पहचान है. हम उनकी व्याख्या उनके प्रतीक चिन्हों से करते हैं और उनका विस्तार समझते हैं।

हमारे देश भारतवर्ष की संस्कृति जिसे हम भारतीय संस्कृति कहते हैं उसका भी अपना विस्तार को शापित करने का साधन है जिसके माध्यम से उस संस्कृति विशेष के विस्तार, प्रसार और समृद्धि का सही सही आकलन किया जा सके। इतिहास गवाह है कि भारत की हैंi

संस्कृति का आदिकवि इसलिए विस्तार भारत की देन मुख्य कारण हम पन मूल भावनाओं को मान सकते है। है। हमारी भारत की भूमि की जिन दरव कुटुम् विशेषताओं की चर्चा हम इस आलेख के माध्यम से करना चाहते हैं उसका उद्देश्य अत्यधिक महत्वपूर्ण है। इन विशेषताओं के कारण भारत ऐसी ऊर्जा से संचालित होता है जो प्रत्यक्ष प्रमाणित है कि उस ऊर्जा को मिटा सके ऐसी शक्ति अथवा साहस विश्व के किसी देश में नहीं है। भारतीय संस्कृति की मूल संरचना आधारित है, "वसुधैव कुटुम्बकम्' पर हम भारतवासी इसी सिद्धांत पर चलते हैं, हम यह देखते प्रभावित हैं कि विश्व के अधिकांश देश भारत की जनसंख्या को देखते हुए, उस आधार पर उसे वे 'एक बाजार' की दृष्टि से देखते हैं, इसके ठीक पूरे विश्व का एक परिवार की दृष्टि से देखता है। यही है हमारा कुटुम्बकम् गारी पृथ्वी को परिवार भाव से अपनात हुए निःस्वार्थ प्रेम देते हुए सभी देशों से मैत्री भाव रखना हमारी संस्कृति हमारी संस्कृति का वह है जिसकी सुरक्षित छत्रछाया में भारतीय जनमानस पूर्ण सुरक्षित व संरक्षित है। संस्कृति ने हमें दिया जीवनोपयोगी संस्कार कुदरत के नियमों के अनुरूप चलने का आदेश दिया और हमें पूर्णरूप से आत्मनिर्भर बनाने के लिए महत्वपूर्ण सकारात्मक संदेश दिए। संस्कृति के माध्यम से हम जान पाए कि हमारे भीतर दो शक्तियाँ कैसे काम करती है और जीवन को करती है।

चाहे ये अपना हो या पराया

गिनती हल्के दिमाग वालों के लिए है. जो लोग अपने कर्मों में उदार होते हैं, उनके लिए पृथ्वी ही उनका परिवार है।' भूमि जन संस्कृति' ये तीन शब्द है, जिसमें भूमि अर्थात् भू खण्ड एवं भूखंड जिस पर रहने वाले जन और जनमानस द्वारा व्यवस आधार विचार रहन-सहन कार्यकलाप आदि आदि उन की संस्कृति इन तीनों का मिश्रण (भू. जन संस्कृति) ही देश राष्ट्र के रूप में जाना जाता है, या हम इसे यूँ भी कह सकते हैं कि भू जन संस्कृति से मिलकर एक देश अथवा राष्ट्र का निर्माण होता है। विश्व में आज जिसने मी पेश है उन सब की संस्कृति ही उनकी पहचान है, हम उनकी व्याख्या उनके प्रतीक चिन्हों से करते हैं और उनका विस्तार समझते हैं।

हमारे देश भारतवर्ष की संस्कृति जिसे हम "भारतीय संस्कृति कहते है उसका भी अपना विस्तार को ज्ञापित करने का साधन है जिसके माध्यम से उस संस्कृति विशेष के विस्तार प्रसार और समृद्धि का सही सही आकलन किया जा सके। इतिहास गवाह है कि भारत की

संस्कृति का अनंत विस्तार था, क्योंकि यह इस बात से आँका जा सकता है कि भाषा विज्ञान, ज्योतिषी, गणित आदि का ज्ञान विश्व व्यापी है इसलिए ज्ञान का विस्तार भारत की देन है इसका मुख्य कारण हम उन मूल भावनाओं को मान सकते है। हमारी भारत की भूमि की जिन विशेषताओं की चर्चा हम इस आलेख के माध्यम से करना चाहते हैं उसका उद्देश्य अत्यधिक महत्वपूर्ण है। इन विशेषताओं के कारण भारत ऐसी ऊर्जा से संचालित होता है जो प्रत्यक्ष प्रमाणित है कि उस ऊर्जा को मिटा सके ऐसी शक्ति अथक साहस विश्व के किसी देश में नहीं है।

भारतीय संस्कृति की मूल संरचना आधारित है, "वसुधैव कुटुम्बकम्' पर हम भारतवासी इसी सिद्धांत पर चलते हैं, हम यह देखते है कि विश्व के अधिकांश देश भारत की जनसंख्या को देखते हुए, उस आधार पर उसे वे एक बाजार की दृष्टि से देखते हैं, इसके ठीक विपरीत भारतवर्ष पूरे विश्व को एक परिवार की दृष्टि से देखता है। यहीं है हमारा 'वसुधैव कुटुम्बकम्' सारी पृथ्वी को परिवार भाव से अपनाते हुए निःस्वार्थ प्रेम देते हुए सभी देश से मैत्री भाव रखना हमारी संस्कृति है।

दरअसल 'वसुधैव कुटुम्बकम्' हमारी संस्कृति का वह सशक्त ध्वज है जिसकी सुरक्षित छत्रछाया में भारतीय जनमानस पूर्ण सुरक्षित व संरक्षित है। संस्कृति ने हमें दिया जीवनोपयोगी संस्कार कुदरत के नियमों के अनुरूप चलने का आदेश दिया और हमें पूर्णरूप से आत्मनिर्भर बनाने के लिए महत्वपूर्ण सकारात्मक संदेश दिए। संस्कृति के माध्यम से हम जान पाए कि हमारे भीतर दो शक्तियों कैसे काम करती है और जीवन को प्रभावित करता है. 

हल्के दिमाग वाले हिसाब लगाते हैं कि यह उनका अपना है या किसी और का। जो लोग अपने कर्मों में उदार होते हैं, उनके लिए पृथ्वी ही उनका परिवार है।

सुभाषितम् का यह श्लोक इस बात की पुष्टि करता है। इसमें कहा गया है कि जो लोग तेरा मेरा की भावना रखते हैं। ऐसे लोग छोटी सोच के होते हैं इसके विपरीत पूरी पृथ्वी को ही अपना परिवार मानने वाले लोग ही उदारचरित्र के होते हैं जो समग्र को. वसुधैव कुटुम्बकम्' कहकर उसका मान रखते हैं।

यह श्लोक जीवन दर्शन के दो रूप प्रस्तुत करता है जो छोटी सोच के हैं वे परिवारों को बांटते हैं और जो उदार या बड़ी सोच के हैं वे सबको जोड़ते हैं। बाँटने का भाव नकारात्मक शक्ति है और जोड़ने का भाव सकारात्मक शक्ति है इस तरह ये दोनों शक्तियाँ हमारे ही शरीर में कार्य करती है। ज्ञान का प्रकाश सकारात्मकता को बल देता है और बढ़ाता है जबकि अज्ञान का अंधकार नकारात्मकता को बल देकर उसे बढ़ाता है। आज की परिस्थितियों में नकारात्मकता के शिकार लोगों का राजनीति में बहुत अधिक प्रवेश या बोलबाला है। जिसका प्रभाव भारतीय जनजीवन पर मी पड़ रहा है।

भारत को एक विकसित, समृद्ध आत्मनिर्भर सशक्त राष्ट्र बनाना है तो हम देशवासियों को अपनी सकारात्मक ऊर्जा का ही इस्तेमाल करना होगा। इसके लिए यह जरूरी है। हम अपनी सोच को इतना उदार बनाए कि जिससे देश का देशवासियों का. कोई कोना हमारी देखभाल से छूट ना जाए भारतीयों के जनमानस में पूर्ण विश्वास आत्मनिर्भरता का भाव भरने के लिए ध्यान का दायरा बहुत सशक्त है। शिशु, बाल, युवा, प्रौढ़ वृद्ध नर- नारी इन सबके विषयों को सबसे ज्यादा ध्यान देने की जरूरत है। इन सबमें अपार शक्तियाँ है जिन्हें क्रियाशील जागृत करने की जरूरत है। इसके लिए हमारी नीतियों ऐसी बने और हानिवेदन से लागू हो जिसमें

 

  • शिक्षा
  • संस्कार
  • अनुशासन
  • योग
  • स्वास्थ्य
  • समर्पण

आदि का प्रशिक्षण संस्थाओं के माध्यम से प्राप्त हों हमारी संस्थाएँ जिम्मेदार हैं सेवा भाव व समर्पण जिनमें हो यह जरूरी है. ऐसी व्यवस्था के लिए बस कारगार नियम बनाने की जरूरत है इसके लिए दृढ़ इच्छा शक्ति की जरूरत है। बिना इसके परिणाम सुखद प्राप्त नहीं होंगे हजारों, हजार नीतियों बनाने से कहीं बेहतर तो यह है कि एक सशक्त कानून ही सारे काम कर दें। भारतीय संस्कृति में नारी सम्मान, सत्य शिक्षा को ऊँचा स्थान मिला। नारी विश्वास से भरी एक सशक्त ऊर्जावान नागरिक है भारतवर्ष में वह परिवार की धुरी होती है, वह सत्य, विश्वास और ज्ञान से भरपूर है नीतियों को इन्हें सशक्त करने वाला होना चाहिए, क्योंकि जब एक स्त्री पढ़ी-लिखी होती है तो पूरा परिवार शिक्षित बनता है। नारी द्वारा सत्य, शिक्षा, अनुशासन व संस्कार परिवार को मिले नीतियों को ऐसा होना चाहिए। नारी सशक्त होगी तो पूरा समाज सशक्त होगा तो परिवार संप्रदाय, समाज, राष्ट्र सबको लाभ मिलेगा। नारी शिशु, बाल, युवा प्रौढ़ व वृद्धजनों की समाधान बना सकती है समझदार राष्ट्रों को ना सशक्तीकरण के विषय में बहुत सार धन खर्च करना चाहिए। इसके लिए सरकार को अपना ध्यान केन्द्रित करना चाहिए।

एक कहावत है कि एक तीर दो निशाने जिसको इस तरह समझना चाहिए कि हम एक समाधान अथवा उपाय से एक से अधिक समस्याओं को सुला सके। यह सब बातें उदारचरितानां के विषय में ठीक लगती है। आज के दौर में जो कहावते चरितार्थ हो रही है उनमें रायता फैलाना जिसकी लाठी उसकी भैंस अंधा बांटे रेवडी चिन्ह चिन्ह के देहि आदि आदि जो लघुचेतगाम' का विषय बन जाता है। ऐसी दो धारी तलवार की स्थिति में हर नागरिक को सोचना जरूरी है।

हम प्रार्थना में यह तो कहते हैं लोका समरता सुखिनो भवन्तु सर्वे भवन्तु सुखिन: पर उन पर सुख बरसे ऐसे कृत्य हम नहीं करते। एक शिक्षित समझदार कुदरत के नियमों को पालने वाला व्यक्ति अपनी सूझ- बूझ से स्वयं को पूर्ण स्वस्थ रखता है और स्वस्थ्य व्यक्ति सकारात्मक ऊर्जा प्रसार करता है। भारतवर्ष के जनजीवन में सुख का प्रसार करने के लिए एक एक नागरिक महिला / पुरुष को सकारात्मक सोच के साथ सकारात्मक ऊर्जा को प्रसारित करना होगा तभी देश खुशहाल बनेगा। 

सबसे महत्त्वपूर्ण पहलू यह है कि जब भी हम सामाजिक संस्कारों की चर्चा करें, हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि 'सर्वे भवन्तु सुखिनः का भाव हमारे जीवन में तब ही प्रवाहित होगा जब हम विवाह और परिवार जैसी संस्कारी संस्था पर ध्यान केन्द्रित करेंगे।

जैसे कि हमें यह विश्वास हो कि विवाह एक पवित्र सरकार है, विवाह का अर्थ है विशेष निर्वाह जो दो आत्माओं का मिलन ही नहीं वरन् दो परिवारों का आत्मीय सम्मिलन भी है विवाह में व्यास अनेकानेक समस्याओं का समाधान हमारी इस सोच और विश्वास में है।

दूसरी तरफ परिवार वह आधारभूत संस्था है जिसमें मानव मन व शरीर का पोषण शिक्षा, संस्कार से परवरिश मुकम्मल होता है अगर इस देखभाल में जरा भी लापरवाही हुई कि परिवारगत समस्याएँ उत्पन्न होंगी। इस आधार पर यह तय है कि जीवन में सफलता का मूलमंत्र है।

यदि परिवार में शिक्षा संस्कार, योग्यता, सहयोग, सदभावना व अपने कर्तव्यों व जिम्मेदारियों के प्रति व्यक्ति की प्रतिबद्धता परिवार में सुख लाती है। कोई भी सामाजिक सेवा का कार्य परिवार से ही आरंभ होकर सामाजिक पटल पर स्थापित होता है। परिवार से ही आरंभ होगा सर्वे भवन्तु सुखिनः का भाव

निष्कर्ष यह है कि अन्ततोगत्या हमें हमारी जड़ों की ओर लौटना होगा, हरेक को अपने परिवार की और लौटना होगा। जिस प्रकार पतंग की ऊँचाई नापने का प्रश्न है वह तब तक ही संभव है जब तक वह घिरी से जुड़ा हो. अगर घिरी से कट गया तो वह कहाँ गिरेगा, कितना नीचे गिरेगा, कोई नहीं जानता क्योंकि उसका अंत निश्चित है।

पेड़ की हरी-भरी डाली काट कर अलग कर दें तो उसकी हरियाली कुछ घंटों ही कायम रह सकेगी उसके बाद उसका सूखकर नष्ट हो जाना तय है। जड़ से कटकर हम सफल व सकारात्मक नहीं हो सकते।

अगर सर्वे भवन्तु सुखिनः का भाव साकार करना है तो हम सबको सारी भाषाओं व संस्कृतियों का सम्मान करते हुए अपनी संस्कृति में ही लौटना होगा।