news-details

उत्सवों का आधार, संयुक्त परिवार

सरस्वती कामऋषि

सृष्टि का सृजन परमात्मा ने यह सोच कर किया है कि मेरा सबसे उत्कृष्टतम कृति मानव को ही वे सारे सुख मिले जो उनके ही लिये सृजित हुए है। यह स्वभाव हम मानवों को उपहार में मिला है। जो हमें हरपल याद रखना चाहिये। अगर हम इसे ऐसे समझे कि सृष्टि का सौंदर्य, उसकी उदारता, उसकी विशालता, निस्वार्थ प्रेम की, सेवा की भावना हमें विरासत में मिली है तो यह सटीक सार्थक अर्थ होगा। जब हम परिवार में एक साथ मिलकर प्रार्थना करते है। तो हम अपने भीतर असीम सुख अनुभव करते है। यह सुख आता है हमारी एकता से, रिश्तों से, हमारे

बीच की आपसी जुड़ाव से। जब हम संयुक्त व्यवहार में रहते है। तब हम ईश्वर के इरादों को समझ पाते है। हम उसकी संतान है। वह हमें पिता रूप में संरक्षण देता है। इसलिए अपनी संतानों से वह अपार स्नेह करता है।

भारतीय संस्कृति की पहचान हमारा संयुक्त परिवार ही है। जहाँ उसकी प्रत्यक्ष झलक हम देखते है। और यह आभास भी हम पाते है। कि संस्कृति, संयुक्त परिवार में ही संरक्षित है। समय के साथ आज एकल परिवारों का चलन बढ़ता जा रहा है। संयुक्त परिवारों के विघटन से मानों हम ईश्वर से भी दूर होते जा

रहे है। आश्चर्य इस बात का है कि शिक्षा प्राप्त युवक-युवतियाँ ही एकल परिवार के हिमायती बन रहे है। सवाल यह है कि हम अपनी सामाजिक विरासत संयुक्त परिवार की पहचान भुला रहे है। यह हमारी नई पीढ़ी और देश के भविष्य के लिये भी उचित नहीं है। भारत वर्ष उत्सवों का देश है। जहाँ साल के 365 दिन उत्सव मनाये जाते है। उत्सव हमें सकारात्मक ऊर्जा से भरते है। मिलकर मनाना सिखाते है। इससे हम एकता, संगठन, समानता और स्नेह के भाव सीखते है। जो खुशी हमें मिलती है। उससे हम उत्तम स्वास्थ्य ही पाते है। आनंद कई गुना बढ़ जाता है। यह दुखद है कि आजकल एकल परिवार की व्यवस्था में उत्सवों का आनंद भी कम होता जा रहा है। भारत के संदर्भ में हम यह जानने का प्रयास करेंगे।

भारतवर्ष की पहचान जिस प्रकार संपूर्ण विश्व में उसकी संस्कृति से है। ठीक उसी प्रकार समुचे मानव समाज में भारतीय 'संयुक्त परिवार' की पहचान है। यूँ तो संयुक्त परिवार पूरे विश्व में हर जगह है। किन्तु भारतीय संयुक्त परिवार की पहचान उसे उस अवधारणा से विशेष रूप से जोड़ती है। जो 'वसुधैव कुटुम्बकम्' एक सांकेतिक अमृत उवाच है। जो भारतीय समृद्ध दृष्टिकोण को उजागर करता है। भारतीय संस्कृति में यह बात स्वीकार की गई है। कि समस्त पृथ्वी अपने समस्त जीवधारियों सहित एक संयुक्त परिवार है इसमें राग, द्वेष, आपसी भेदभाव, घृणा, अलगाव जैसा कोई विकार नहीं है। अपने आप में सुसंगठित परिवार हमेशा प्यार की डोर में बंधा हुआ खुशनुमा रहता है। यही है हमारी संस्कृति की पहचान है। जिसने पूरे विश्व में एकता की मिसाल कायम की। संयुक्त परिवार की प्रेरणा सूत्र वसुधैव कुटुम्बकम ।

परिवार वास्तव में एक ऐसा ईश्वर प्रदत्त उपहार है जो हमें स्वतः संगठन का पाठ पढ़ाता है। यदि हम गहराई से सकारात्मक सोच परिवार के प्रति रखें। तो हमें परिवार में सम्बन्धों की प्रतिष्ठा, आपसी सद्भावना, अच्छे संस्कार, अपनों के प्रति जिम्मेदारी, बच्चों के प्रति करुणा, स्नेह का भाव, बड़ों के प्रति सदा कृतज्ञता का भाव झलकता हो, यह सब कुछ सुखद है। इसे अनुभव करने की आवश्यकता होती है। संयुक्त परिवार के इस अनुपम सौंदर्य को देखने के लिये अंतः प्रज्ञा व दिव्य दृष्टि चाहिये जो आज हमारे पास नहीं है। इसलिये आज परिवारों में वह सब दिखाई नहीं देता, जो हम देखना चाहते है। परिवार चाहे छोटा हो या बड़ा आपस में मिल-जुलकर एक घर में रहते है। तो उसे संयुक्त परिवार कहते है।

संयुक्त यानी मिला हुआ। परिवार के मुखिया की बड़ी भूमिका होती है वैसे देखा जाये तो एक देश व परिवार की तुलना की जाये तो दोनों के ही प्रधान को बहुत होशियार, कूटनीतिज्ञ, कुशल व कुशाग्र होना पड़ता है। एक देश का प्रधान मंत्री होता है और दूसरा देश का दादाजी होता है। देश की समृद्धि. विकास, उन्नति और खुशहाली के लिये जिस प्रकार प्रधानमंत्री जिम्मेदार है। ठीक वैसे ही परिवार र का दादा सुख, शांति, समृद्धि, संस्कार, शिक्षा, अनुशासन के लिये जिम्मेदार होता है। जैसे देश के प्रधानमंत्री को महत्त्वपूर्ण विभाग अपने पास रखना पड़ता है वैसे ही मुखिया को संस्कार, शिक्षा और अर्थ की जिम्मेदारी अपने पास रखनी पड़ती है। तुलसीदास जी ने मुखिया की बहुत सुंदर व्याख्या की है। आज यह परिवार और देश पर खरा बैठती

है। वे कहते है- 

'मुखिया मुख सम चाहिये,

खान पान को एक । पाले पोसैं सकल अंग

तुलसी सहित विवेक ।'

संत तुलसीदास जी की जितनी

सराहना की जाये उतना कम है ऐसे

महापुरुष जिन्होंने दिव्य चक्षुओं से

परिवार की सफलता की कल्पना की। और अनुभव में उसे खरा पाया भी। कवि कहते हैं कि मुखिया को मुख के समान होना चाहिए। जैसे शरीर के अंगो में मुख द्वारा हम भोजन करते हैं परन्तु उस भोज्य पदार्थ की शक्ति पूरे शरीर को एक समान प्राप्त होती है। इस प्रसंग में यही समझना चाहिए कि परिवार के हर एक आयु वर्ग के अनुरूप मुखिया का ध्यान सदैव सफलता की ओर होना चाहिए। परिवार में किसी की अनदेखी नहीं होना चाहिए। किसी भी उन्नति अवनति की दशा में सबकी संयुक्त सामूहिक जिम्मेदारी हो। कहने का अर्थ यह है कि बासी, परम्परागत अवै इशा निक तक हीन, अकल्याणकारी कानूनों को देश और परिवार दोनों ही में बदलना चाहिए। नहीं तो देश और परिवार में अराजकता, अशांति, व असंतोष की स्थिति पैदा हो जाती है। जैसा कि आज हम देखते हैं कि पूरे देश में घोटाले ही घोटाले हो रहे हैं। टी.वी. अखबार में हर दिन देश में हो रहे भ्रष्टाचार, अत्याचार, लूट की घटनायें पढ़ने व देखने को मिलती हैं। दूसरी ओर बढ़ती महगाई से, भ्रष्टाचार से, भौतिकवादी संस्कारों में डूबते उतराते लोगों के कारण परिवार भी टूट रहे हैं, बिखर रहे हैं, छिन्न-भिन्न हो रहे हैं, तार-तार हो रहे हैं। रिश्तों ने जैसे अपनी खूबसूरती खो दी हो। बड़ा ही मार्मिक दृश्य है सब दुःखी व लाचार हैं।

परिवार हर तरह के होते हैं जैसे उपवन मैं हर रंग व हर प्रकार के फूल खिलते हैं। विविध रूप और विविध आकार-प्रकार और रंगों के जो उपवन का सौन्दर्य बढ़ाते हैं। ठीक जैसे ही परिवार भी हर तरह के होते हैं। परदादा, मुखिया, कहीं दादा जी मुखिया, कहीं पिता, कहीं दादी जी, और कहीं माँ मुखिया है। ये सब विविधतायें हैं। कहीं पुरूष प्रधान परिवार में प्रगति देखी जाती है तो कहीं स्त्री प्रधान परिवार में बहुत उन्नति करते हैं। बहरहाल ये दोनों ही पक्ष हमारे समाज की शोभा हैं। अगर यह देखना हो परिवार कितना उन्नत सभ्य व संस्कारी हैं। तो उस परिवार के बच्चे से ही बात करके हम आसानी से यह जान सकते हैं कि उनका खानदान कितना ऊँचा है दरअसल बच्चे परिवार का आइना होते हैं तथा परिवार की उन्नति के प्रतिनिधि होते हैं। वे गौरव होते हैं परिवार के एक-एक परिवार की उन्नति ही देश समाज के उन्नति की

कसौटी है।

आजकल टी.वी. पर ऐसे सीरियल आते हैं। जहाँ संयुक्त परिवार के नाम से भीड़ तो बहुत होती है पर परिवार में ही एक ऐसा व्यक्ति होता है जो विष की जहरीली अमर

बेल बनकर पूरे परिवार की अंत्येष्टि करता दिखाई देता है। अच्छे-अच्छे गहने व कपड़ों में लिपटी घर की महिलायें अपनी घटिया सोच को डॉयलाग का जामा पहनाकर अनैतिक अविश्वसनीय, अस्वाभाविक, अरूचिकर कलावा परोसती रहती हैं। आखिर क्या यही हम सबकी असली तस्वीर है। दरअसल मूल्यविहीन प्रदर्शन हमें हमारे समाज के वास्तविक सांस्कृतिक व पारंपारिक परिवेश से दूर कर रहीं हैं। लगता है लोगों की सोच भी ऐसी हो गई है कि इन सीरियलों के पात्रों को अपने जीवन में उतारकर अपने ही जीवन में जहर भर रहे हैं। वास्तव में यह सत्य नहीं है। आज भी हमारे यहाँ मूल्यों का वहीं मान है जो कभी हुआ करता था। संस्कार शैली परम्परा सबकुछ अक्षुण्य हैं। उसे कोई मिटा नहीं सकता है। यह परिस्थितियां बहुत समय तक कायम नहीं रहेंगी। विश्वास ही हमारे जीवन का मूल आधार है। अतिवादी संस्कृति की गरम हवाओं ने भले ही हमें झुलसाया हो पर, वास्तविकता की जमीन पर आते ही उन्हें सत्यमेवजयते की गूंज शीतल बयार सी लगने लगती है। भीतर कहीं विश्वास है कि सत्य की ही जीत होती है, एक दिन सबको मृत्यु का आलिंगन करना ही है। जन्म यहाँ कैसे हो यह भले ही हमारे वश में नहीं

है परन्तु मृत्यु को सरल सहज

आनंदमय बनाना हमारे ही वश में है।

हम मृत्युंजयी बन सकते हैं। वो कहते हैं न मनुष्य खाली हाथ आता है और खाली हाथ चला जाता है यह सच नहीं हैं। यह जानना अति आवश्यक है कि जीव अपना भाग्य लेकर आता है और जाते समय अच्छे बुरे अपने संस्कार साथ ले जाता है। जीवन में इस जन्म और मृत्यु के बीच आने और जाने का जो समय ईश्वर ने निश्चित किया है बस वही समय हम सबके लिये महत्वपूर्ण है। जिसने समय को महत्व नहीं दिया उसने जीवन में कुछ भी हासिल नहीं किया। धन और समय में से कुछ लोग धन को चुनते हैं. और कुछ लोग समय को चुनते हैं। जो लोग धन को महत्व देते हैं वे जीवन में सब कुछ खो देते हैं परन्तु जो लोग समय को पहचानकर उसका सम्मान करते हैं. जीवन में उसे महत्व देते हैं। हर काम समय पर पूरा कर लेते हैं। वे लोग धन समृद्धि सम्मान यश सब कुछ पाते हैं। वे लोग इस लोक व परलोक दोनों की व्यवस्था कर पाते हैं। जीवन भर खुद सुखी रहते हैं और सबको सुखी रखते हैं। इन सब बातों में निश्चय व अंतिम निर्णय तो आखिर हम ही लेते हैं।

वास्तव में संयुक्त परिवार आज भी है। अपने मूल स्वरूप में यथावत् जीवन मूल्यों की, मानवीय मूल्यों की संस्कारों की, पालन पोषण की मान सम्मान की रीति रिवाजों की अध्यात्मिक चेतनाओं की गरिमापूर्ण अभिव्यक्ति होती है। परिवार का हर सदस्य एक दूसरे के प्रति पूर्ण समर्पित जागरूक जिम्मेदार है।

जिससे परिवार की प्रतिष्ठा, परिवार के हर सदस्य के कारण सदा बनी रहती है। कोई बुजुर्ग नहीं होता है, कोई स्पेयर नहीं होता है। हर उम्र, हर आयु के लोगों के लिए विशेष नियम व अनुशासन जो हैं। जो हमेशा एक के अधिकारों व दूसरे के कर्तव्यों के पालन की सुविधा देता है। ऐसा परिवार एकजुट होकर सदैव समाज राष्ट्र के लिए जब भी आवश्यकता हो सहयोग दे सकता है। ऐसे परिवार अपना पूरा ध्यान व अटूट विश्वास उस परम पिता परमेश्वर पर रखते हैं। अपने दायित्वों को प्रभु आदेश समझकर प्यार से निभाते हैं। मिला-जुला खाते हैं, मिलजुलकर रहते हैं। परिवार में सदा आनंद और खुशियां होती हैं। ऐसे परिवार में जब किसी की मृत्यु होती है तो वह पूर्ण संतुष्ट होकर इस दुनियाँ से जाता है, उसे परिवार के टूटन व रिश्तों के बिछोह का भय नहीं

होता है। इसलिए एक भरपूर जीवन जीकर वह सहर्ष शरीर छोड़ने में आनंदित होता है। वास्तव में संयुक्त परिवार का सबसे बड़ा रहस्य भी यही है कि जब हम जन्म लेते हैं तब हमें परिवार अपने सक्षम हाथों से स्वीकार करता है और जीवन को अनमोल बनाता है। देह अनमोल है जिसे देहीभिमान में रहते हुए इस संसार में अपनी ऊर्जा व ईश्व प्रदत्त शक्तियों का उपयोग करके अपनी शिक्षा-दीक्षा के अनुरूप बेहतर से बेहतर जीवन जीना और जीने देना सिखाता है। जियो और जीने दो' का मूल मंत्र हमें देता है। ऐसे ही संयुक्त परिवार, एक सफल राष्ट्र की भांति सम्पूर्ण विश्व में अपनी पहचान बनाते हैं। इस प्रकार यह सत्य संयुक्त परिवार में आँखों से देखा परखा गया इसलिए उदाहरण में भारतीय संयुक्त परिवार को रखा। आज पूरे विश्व में ऐसे अनेक परिवार हैं जो हमें प्रेरणा देते हैं।

निष्कर्ष यही है कि परिवार छोटा हो या बड़ा भाव अगर है तो वह संयुक्त परिवार है। सम्बन्धों व रिश्तों में समानता, गुणवत्ता, सम्मान रिश्तों की गरिमा कायम हो तो कोई मुश्किल नहीं परिवार को जोड़ना। आज आवश्यकता है जोड़ने की, बस शर्त यही है कि हमारे भाव सदा सकारात्मक हो जिससे समाधान संभव हो सके। दीप से दीप जलता है। ऐसे ही परिवारों के टूटने से रिश्तों की राह में फैले अंधियारे को मिटाने के लिए संयुक्त प्रयास से ही उजाला फैलाना होगा।

खोयी हुई प्राण शक्ति को पुनः स्थापित कर अपने समाज का पुननिर्माण कर स्वस्थ सुन्दर समृद्ध बनाना हम सबका नैतिक दायित्व है। यह संयुक्त प्रयास ही इस दिशा में नई आशा की किरण है।