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मानव सभ्यता का वर्तमान पड़ाव

□: सूर्य प्रकाश जोशी

वास्तव में लेख की विषय वस्तु में मानव जाति की उन्नति, जो कि ज्ञान- विज्ञान के विकास के साथ होती गई किन्तु जहाँ से प्रारंभ हुई थी अर्थात् मानव जाति में अपने जीवन यापन एवं उन्नति में पशु पक्षियों को आधार बनाया था एवं ज्ञान विज्ञान के विकास से उन्नत साधन उपलब्ध हो जाने पर अपने आधारभूत साधनों (अर्थात पशु-पक्षियों) की देखभाल, उनकी जीवन रक्षा आदि पर पर्यास ध्यान नहीं दिया। इस कारण से शनैः शनैः उनकी संख्या में कमी एवं प्रजातियाँ भी प्रभावित होती गई। उनका जीवन यापन ही आज दुश्कर हो चुका है। ज्ञान विज्ञान के विकास के साथ उनके लिये रक्षात्मक उपाय, नियम योजनाएं आदि बनना उनका पालन एवं साधन उपलब्धता सुनिश्चित किया जाना मानव समाज का ही अनिवार्य दायित्व समझा जाना चाहिये। यह मूलभाव संप्रेषित किया गया था। अब आगे- मानव जाति ने अपनी उन्नति में प्राकृतिक संसाधनों का भरपूर दोहन किया । बहती नदियाँ को रोका गया, बांधों के माध्यम से जल की उपलब्धता बढ़ाई गई, सिंचाई माध्यमों से फसलों की पैदावार बढ़ाई गई। जल का भी मनुष्य ने अपने लिये उपयोग किया व अन्न का भी उपयोग अपने पेट भरने के लिये किया। इसका अंश मात्र भी पशुओं को अधिकारिक रूप से नहीं दिया। अन्न अव्यवस्था के कारण सड़ जाने पर नष्ट कर दिया गया किन्तु पशुओं द्वारा कचरे में प्लास्टिक पन्नियां, कागज व अन्य अभोज्य पदार्थों को ही अपना आहार बनाना पड़ा व पेय जल न मिल पाने के कारण गटर, नालों आदि का पानी विवशता में पीना पड़ा। अन्न जल की उपलब्धता मानव समाज ने मानव समाज तक ही सीमित रखी। इसके आगे सोचने अथवा ध्यान दिये जाने को अपना। दायित्व नहीं समझा। प्राकृतिक जल स्त्रोत एवं वनस्पति अब स ह ज उपलब्ध नहीं है, चूंकि इन जाता है जबकि सहअस्तित्व के सिद्धांत के अनुसार हमारे आसपास ऐसे सभी प्राकृतिक एवं अप्राकृतिक साधन हो जिससे कि सभी प्राणियों को अपने अपने जीवन यापन में किसी कठिनाई का सामना न करना पड़े। मानव जाति द्वारा संकीर्णता से ऊपर उठ कर उदारता की ओर बढ़ना एवं तदानुसार क्रियान्वयन किया जाना आवश्यक है। बसाहट के साथ समुचित वृक्षारोपण, जल स्त्रोत निर्माण, चारा युक्त छोटे-छोटे मैदान, बांग आदि का निर्माण भी आवश्यक माना जाए। ऐसे नियम बनाकर अवश्यमेव पालन कराए जाएं। कहना न होगा कि गांव आधारित शैली ही शहरों के लिये भी श्रेयस्कर होगी जो कि अन्ततः वर्तमान दमघोटू स्थिति से निजात देने एवं पर्यावरण सन्तुलन में सहायक सिद्ध होगी। अत्याधिक बड़े ऊँचे बाँघ व उत्खन्न से निर्मित बड़ी गहरी खदाने भी पड़ोसी देश अथवा प्रदेश के लिये भौगोलिक असंतुलन की स्थिति निर्मित करने में सहायक सिद्ध होते हैं, जिससे प्राकृतिक व अप्राकृतिक विपदाओं की संभावनाएं बढ़ जाती हैं। इन तथ्यों को ध्यान में रखते हुए ही आगे की विकास योजनाओं का क्रियान्वयन किया जाना श्रेयस्कर होगा। प्रकृति का मानव ने बहुत दोहन कर लिया अब हम इस स्थिति में आ गए हैं कि हमारे कान खड़े हो जाएँ व आंखें खुल जाएँ, जिससे कि आगे किन्हीं अप्रत्याशित स्थितियों का सामना न करना पड़े जो किसी भी विभीषिका का रूप हो सकती है व मानव जाति के साथ-साथ सभी चर अचर के लिये भी उस पीड़ा का दर्द असहनीय एवं अविस्मरणीय बन जाए।