□: विनीता राहुरीकर
घर में संक्रांत का हल्दी-कुंकुम था। माँ, चाची और बुआ ने मिलकर तय किया कि अलग-अलग सबके घरों में हल्दी-कुंकुम का आयोजन करने से अच्छा है कि किसी छुट्टी वाले दिन तिलगुड़ की बर्फी और अपना-अपना आवा (संक्रांत में बांटी जाने वाली वस्तुएँ) लेकर सब लोग एक ही घर में इकट्ठा होकर एक साथ संक्रांत मना लें।
लिहाजा सब लोग मिलकर चाची के यहाँ ही इकट्ठा हुए। फिर क्या था चार पीढ़ियाँ जहाँ एक साथ इकट्ठा हुई नहीं कि घर में वो धूम मचती है कि पूछिए मत। मौसा-मौसी, चाचा-चाची, बुआ-फूफा, माँ- पिताजी सबके बच्चे और बच्चों के भी बच्चे, छोटे-बड़े सब मिलाकर पच्चीस-तीस लोग हो जाते हैं। एक कमरे में पुरुष वर्ग अपनी महफिल जमा लेता है, एक कमरे में सारे बच्चे अपने खेल में रम जाते हैं। कोने वाले कमरे में दादी के पास माँ, बुआ और मौसी बैठी थीं। रसोई घर में ननद-भौजाइयों का साम्राज्य था। आपस में हँसी ठिठोली भी चल रही थी और काम भी हो रहे थे। चाची बारी-बारी से सब कमरों में जाकर सबका ध्यान रख रही थी। बच्चों के कमरे से तेज शोर उठा। "ओह हो! ये बच्चे भी कितना शोर करते हैं। बिट्टो दी जरा इन्हें डाँट तो आना।" छोटी भाभी सपना ने थाली में तिल के लड्डू सजाते हुए कहा। बिट्टो साड़ी पल्लू कमर में खोंसकर चाची के कमरे की तरफ बढ़ी। सारे बच्चे वहीं खेल रहे थे। कमरे में बच्चों को डांटने पहुँची बिट्टो क्षण भर को भाव-विभोर होकर खड़ी रह गयी। बच्चे अपने भोले-भाले खेलों में किस कदर खोए हुए थे। बिट्टो को अपना बचपन याद आ गया। केलेण्डरों पर तारीखें बदल गयीं। चेहरे बदल गये पर बचपन और उसके खेल आज भी ज्यों के त्यों हैं। जरा भी नहीं बदले। पहले बिट्ट्टो और सारे चचेरे, मौसेरे, फुफेरे भाई-बहन इसी तरह तो हुल्लड़ और शोर करते हुए यही सारे खेल तो खेलते थे। छुपा-छायी, घोड़ा-बादाम छाई, विष- अमृत तब बिट्टो की जगह चाची या बुआ कमर में पल्ला खोंसकर उन्हें डांटने आ पहुँचती थीं, लेकिन बिट्ट्टो और उसके भाई-बहनों की टोली कहाँ सुनती थी और तब बुआ-चाची मुँह पर नकली गुस्सा चढ़ाकर उन्हें डांटती और हँसते हुए लौट जातीं। बिट्टो भी उनके खेल में मगन मासूम चेहरों को निहार कर हँसते हुए लौट आयी। "क्या हुआ?" आते ही बड़ी भाभी स्मिता ने पूछा। "अरे भाभी, हम लोग भी हमारे बचपन में कहाँ किसी की सुनते थे जो आज ये सुनेंगे। खेलने दो उनको अपने हिसाब से, बच्चे ही तो हैं।" बिट्टो हँसते हुए बोली तो दोनों भाभियों के साथ छोटी शीतल भी हँसने लगी।
"और क्या दीदी मैं तो इसीलिये रिद्धि को कभी शोर करने से मना नहीं करती।" शीतल बोली।
"हाँ करेगी कैसे, बचपन में सबसे तेज आवाज तो तेरी ही रहती थी।" बिट्टो बोली तो एक बार फिर से सब हँसने लगीं।
तभी घर की बड़ी बहू याने बिट्टो की माँ रसोई में आयी और बुआ की बहू सपना से बोली "सपना बेटा एक थाली में तिल की बर्फी सजाकर दादी के पास रख दो और घर के सब लोगों को बुला लो कि दादी से तिलगुड़ लेकर आशीर्वाद ले लो।" "बर्फी तो मैंने सजा दी है
मामीजी बस अभी सब लोगों को बुला लाती हूँ" कहकर सपना थाली दादी के पास सजाकर सबको बुलाने चली गई। "बच्चों को मैं बुलाकर लाती हूँ" कहकर शीतल भी चली गयी। "बिट्टो तब तक हम दोनों पिताजी फूफाजी लोगों के लिए थाली लगा देते हैं। बड़ों का खाना हो जाये तो बच्चों और चाथी बुआ लोगों को खिला देंगे।" बड़ी भाभी स्मिता ने कहा तो बिट्टो थाली में गुड़ की मीठी रोटी और पातोड़ी (बेसन की नमकीन बर्फी) परोसने लगी। बेटे-दामादों को मिलाकर कुल आठ पुरुष सदस्य थे। सबकी थालियाँ लगा कर बिट्टो बोली "चलो भाभी अब हम भी दादी से आशीर्वाद ले लेते हैं।" "हाँ चलो अब तक तो बाकी सब लोग ले चुके होंगे" और दोनों दादी के कमरे में चली गयीं।
दादी अपने पलंग पर गुड़ी-मुड़ी बैठी थीं। माँ और बुआ पास बैठी थी। तिलगुड़ की बर्फी लेकर प्रणाम करते हुए बिट्टो ने देखा। दादी अचानक ही कितनी बूढ़ी हो गयी हैं। पतला झुर्रिदार हाथ हल्का-सा काँप रहा था। दादी के चेहरे पर नजर पड़ते ही बिट्टो के कलेजे में हुक उठी। प्रणाम करने झुकी तो मुस्कुराते हुए दादी ने बिट्टो के सिर पर अपना कंपकंपाता हाथ रखा। बचपन में दादी की गोद में पली-बढ़ी बिट्टो। शादी भी इसी शहर में हुई। लेकिन पहले स्कूल, फिर कॉलेज की पढ़ाई और अब पिछले दस सालों से अपनी गृहस्थी, पति, बच्चे बस इन्हीं में रमी रही। सारे परिवारों का अक्सर ही मिलना होता रहता है पर बिट्टो बहन- भाभियों के साथ हँसी-ठिठोली करके चली जाती है। तभी तो ध्यान नहीं दे पायी कि दादी की उम्र कितनी हो गयी है। बिट्टो के कलेजे में मरोड़-सी उठी।
सबके खाने के बाद आवा देने का कार्यक्रम शुरू हुआ। सब लोग अपनी-अपनी लायी हुई वस्तुएं हल्दी कुंकुम लगाकर एक-दूसरे को दे रहे थे। दादी अपने पलंग पर बैठी उत्साह से सबको देख रही थी। रात ग्यारह बजे जाकर सब अपने-अपने घर आये।
बिट्टो ने दोनों बच्चों के कपड़े बदल कर उन्हें सुला दिया। पति भी जाकर सो गये। अपने कपड़े बदलकर बिट्टो ने साड़ी पास की कुर्सी पर डाल दी और हाथ के कंगन और गले का हार निकाल कर यूं ही ड्रेसिंग टेबल पर पटक दिया ये सोचकर कि सुबह संभाल कर रख दूंगी। तभी माँ की सीख याद आ गयी कि चीजों को हमेशा सहेज कर रखा करो, ज्यादा देर नहीं लगती पाँच ही मिनट लगते हैं, पर बिट्टो अपने-आप में अब जिम्मेदार बनने का प्रयत्न करो।
और बिट्टो ने झटपट अपनी कीमती साडी तह करके हैंगर पर टांगी और हार कंगन अलमारी के लॉकर में रख दिये कि तभी बिट्टो को एक बार फिर से दादी के बूढ़े झुरिदार हाथ और थका हुआ चेहरा याद आ गया। बचपन से ही बड़े हमें नसीहतें
देते हैं, सिखाते हैं कि अपनी धरोहरों को संभालकर रखो, सहेजकर रखो। लेकिन बड़े होने तक हम बस भौतिकवादी वस्तुओं को ही सहेजकर रखना सीख जाते हैं। वहीं हमारी प्रवृत्ति बन जाती है। हम बस ढेर सारे रूपयों से खरीदी गयीं कीमती वस्तुओं को ही धरोहर मानने की भूल कर बैठते हैं, जीवन भर उन्हें ही सहेजने में लगे रहते हैं। लेकिन भौतिकवादी, सुविधाभोगी बनकर हमें याद नहीं रहता कि ये सारी वस्तुएं तो पैसे से खरीदी जा सकती हैं। ये वस्तुएँ' हैं 'धरोहर' नहीं हैं।
बिट्टो पलंग पर जाकर लेट गयी पर आँखों में नींद नहीं थी। रह-रह कर दादी का चेहरा आँखों के सामने आ रहा था।
दादी बयासी-त्रियासी साल की हो गयी हैं। लगभग एक सदी की यादें, समय व समाज का परिवर्तन, उसकी कहानी, परंपराएँ, उनके अनुभव अपने में समेटे वह व्यक्ति अपने-आप में एक धरोहर है, एक 'अनमोल धरोहर' यह कभी हमारे दिमाग में आ नहीं पाता। बिट्टो अपना विश्लेषण करने लगी। कितनी स्वार्थी है वह, रिश्तों से बस आराम और सुख ही चाहती आयी है। खुशी के हर मौके पर मौजमस्ती करने पहुंच जाती है। पर कभी क्या उनकी तकलीफों को जानने का प्रयत्न किया है उसने ?
बिट्टो की आँखों में आँसू झिलमिला आए। सालों के इसी शहर में है, पर कभी याद नहीं आता कि पांच मिनट दादी के पास बैठ कर उनके अनुभव बांटे होगे। जिन हाथों ने उसे चलना सिखाया, याद नहीं आता कि उनके कंपकपाने की उम्र में अपने मजबूत हाथों में उन्हें सहलाकर उनका आभार कभी प्रकट किया होगा।
और आज जब अचानक उनकी उम्र का अहसास हुआ तो ये धरोहर कभी नियति अचानक हमसे छीन न ले, का डर समा गया बिट्टो के मन में।
इसी दादी की छाँव तले न जाने कितनी पीढियाँ पली-बढ़ी, फली फूली, संपन्न हुई। परिवारजनों से लेकर परंपराओं तक सभी को दादी ने सहेजकर रखा। तभी इस घर में एक ही छत के नीचे चार पीढ़ियाँ और परिवार की सभी शाखाएँ इकट्ठा हँसती खेलती हैं। उन्होंने अपने ही बच्चों को नहीं वरन दूसरे परिवारों को भी अपनी स्नेह की छाया दी। तभी तो बिट्टो की मौसी भी उन्हें माँ से बढ़कर मानती है।
याद आया, आर्थिक तंगी के चलते पड़ोस की उमा ताई को नौकरी करनी पड़ी थी तब बिट्टो बहुत छोटी थी। उमा ताई के तीन बच्चे थे। उनकी हैसियत आया रखने की नहीं थी। बारह साल की बड़ी बेटी के भरोसे पर दोनों बच्चों और घर की जिम्मेदारी छोड़ी नहीं जा सकती थी। तब दादी ने ही उन्हें सहारा दिया, तीनों बच्चों की देखभाल की जिम्मेदारी अपने ऊपर ली। बरसों उन्होंने उमा ताई को सहारा दिया। दादी के भरोसे पर उमा ताई निश्चिंत थी। आज जाकर बिट्टो को समझ आया दादी ने मानवता, कर्तव्यपालन परंपराओं के निर्वहन, सभी धरोहरों को सहेजकर रखा था तभी आज उन सभी को फलने-फूलने का मौका मिला। इतने सारे रिश्तों को एक साथ जीने का आनंद प्राप्त हुआ है।
दादी के साथ माँ ने और माँ की छत्रछाया में घर की दूसरी बहुओं ने भी अपने-अपने तौर पर इन धरोहरों को संभाला। लेकिन बिट्टो ने क्या संभाला ? आज तक रिश्ते बिट्टों को संभालते आए हैं। लेकिन बिट्टो अपने गहने कपड़ों को ही सहेजती रही। पर आज अचानक किसी हाथ की कंपकपाहट और चेहरे पर पड़ी हुई असंख्य झुर्रियों ने बिट्टो को डरा दिया कि पता नहीं किसी दिन एकदम से नियति उस धरोहर को इतनी दूर ले जाये कि फिर एक युग लम्बा खालीपन पीछे रह जाये। बिट्टो की आँखों से आँसू बहने लगे। वर्तमान में अगर उसने अपनी वास्तविक धरोहरों को पहचानकर उन्हें सहेजना नहीं सीखा, उनका महत्व नहीं समझा तो भविष्य की पीढ़ी भी उसे एक कोने में सरकाकर पैसे से खरीदी जा सकने वाली वस्तुओं को ही सहेजती रहेगी। बिट्टो ने अपने आँसू पोंछे! नहीं! अब वह जीवन के वास्तविक मूल्य पहचानेगी। रिश्ते सिर्फ सुख में हँसी-ठिठोली करके मन बहलाने के लिए नहीं होते। रूक कर पास बैठकर सहारा देने, दुःख बांटने की जिम्मेदारी भी होते हैं। बिट्टो ने तय किया कल ही वह दादी के पास जाकर बैठेगी, के उनसे बातें करेगी, उनके अनुभव बांटेगी और उसे अपने-आप में ही एक अच्छापन एक हल्कापन लगा। दादी, माँ के बाद अब तीसरी पीढ़ी के लिए इन अनमोल धरोहरों को सहेजने में बिट्टो भी अपना योगदान देगी और उस रात बिट्टो को चैन की नींद आयी।